Sunday, September 25, 2011

सजीव सारथी जी ने अभिनव अभिव्यक्तियों से हिन्दी-कविता को समृद्ध किया है

' प्रसिद्ध वेबपत्रिका 'हिन्द युग्म' के 'आवाज़' मंच के अधिष्ठाता-संचालक यशस्वी संगीतकार-गीतकार श्री॰ सजीव सारथी जी का प्रथम प्रकाशित कविता-संग्रह है।

सजीव सारथी जी मूलत: गीतकार हैं; किन्तु प्रस्तुत संग्रह में अत्याधुनिक शैली में लिखित कविताएँ समाविष्ट हैं — कुछ ग़ज़लों को छोड़ कर।

यद्यपि ये रचनाएँ मुक्त-छंद में रचित हैं; किन्तु उनमें एक विशेष लय व प्रवाह है। प्रांजलता के कारण सजीव सारथी जी के काव्य में प्रभविष्णुता द्रष्टव्य है। आम आदमी को उनके काव्य का रसास्वादन करने में कोई बाधा नहीं आती। भाषा-सहजता ने काव्य को सम्प्रेषणीय बनाया है। लोक-प्रचलित शब्दावली उनके काव्य में अनायास उतरी है।

सजीव सारथी जी अपने इर्द-गिर्द की प्रकृति के प्रति बड़ी मार्मिक प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। यथा — सूरज, नदी, साहिल की रेत, बारिश, मिट्टी, सुबह की ताज़गी आदि के प्रति।

उनके काव्य-सरोकार समसामयिक सामाजिक-राजनीतिक परिवेश से भी सम्बद्ध हैं।

मानव-मनोविज्ञान की उन्हें सूक्ष्म पहचान है। 'एक पल की उम्र लेकर' शीर्षक कविता में अनुभूति की गहराई भावक के हृदय को झकझोर देती है :

सुबह के पन्नों पर पायी शाम की ही दास्ताँ
एक पल की उम्र लेकर जब मिला था कारवाँ,
वक्त तो फिर चल दिया एक नयी बहार को
बीता मौसम ढल गया और सूखे पत्ते झर गये,
चलते-चलते मंज़िलों के रास्ते भी थक गये
तब कहीं वो मोड़ जो छूटे थे किसी मुकाम पर
आज फिर से खुल गये, नये क़दमों, नयी मंज़िलों के लिए,
मुझको था ये भरम कि है मुझी से सब रोशनाँ
मैं अगर जो बुझ गया तो फिर कहाँ ये बिजलियाँ
एक नासमझ इतरा रहा था एक पल की उम्र लेकर!

सुकवि सजीव सारथी जी ने अभिनव अभिव्यक्तियों से हिन्दी-कविता को समृद्ध किया है।



डा॰ महेंद्रभटनागर

Tuesday, August 16, 2011

एक पल की उम्र लेकर - शीर्षक कविता और एक गीत सुजॉय की पसंद का

सजीव सारथी के लिखे कविता-संग्रह 'एक पल की उम्र लेकर' पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इसी शीर्षक से लघु शृंखला की आज दसवीं और अंतिम कड़ी है। आज जिस कविता को हम प्रस्तुत करने जा रहे हैं, वह इस पुस्तक की शीर्षक कविता है 'एक पल की उम्र लेकर'। आइए इस कविता का रसस्वादन करें...

सुबह के पन्नों पर पायी
शाम की ही दास्ताँ
एक पल की उम्र लेकर
जब मिला था कारवाँ
वक्त तो फिर चल दिया
एक नई बहार को
बीता मौसम ढल गया
और सूखे पत्ते झर गए
चलते-चलते मंज़िलों के
रास्ते भी थक गए
तब कहीं वो मोड़ जो
छूटे थे किसी मुकाम पर
आज फिर से खुल गए,
नए क़दमों, नई मंज़िलों के लिए

मुझको था ये भरम
कि है मुझी से सब रोशनाँ
मैं अगर जो बुझ गया तो
फिर कहाँ ये बिजलियाँ

एक नासमझ इतरा रहा था
एक पल की उम्र लेकर।

ज़िंदगी की कितनी बड़ी सच्चाई कही गई है इस कविता में। जीवन क्षण-भंगुर है, फिर भी इस बात से बेख़बर रहते हैं हम, और जैसे एक माया-जाल से घिरे रहते हैं हमेशा। सांसारिक सुख-सम्पत्ति में उलझे रहते हैं, कभी लालच में फँस जाते हैं तो कभी झूठी शान दिखा बैठते हैं। कल किसी नें नहीं देखा पर कल का सपना हर कोई देखता है। यही दुनिया का नियम है। इसी सपने को साकार करने का प्रयास ज़िंदगी को आगे बढ़ाती है। लेकिन साथ ही साथ हमें यह भी याद रखनी चाहिए कि ज़िंदगी दो पल की है, इसलिए हमेशा ऐसा कुछ करना चाहिए जो मानव-कल्याण के लिए हो, जिससे समाज का भला हो। एक पीढ़ी जायेगी, नई पीढ़ी आयेगी, दुनिया चलता रहेगा, पर जो कुछ ख़ास कर जायेगा, वही अमर कहलाएगा। भविष्य तो किसी नें नहीं देखा, इसलिए हमें आज में ही जीना चाहिए और आज का भरपूर फ़ायदा उठाना चाहिए, क्या पता कल हो न हो, कल आये न आये! इसी विचार को गीत के रूप में प्रस्तुत किया था साहिर नें फ़िल्म 'वक़्त' के रवि द्वारा स्वरवद्ध और आशा भोसले द्वारा गाये हुए इस गीत में - "आगे भी जाने ना तू, पीछे भी जाने ना तू, जो भी है बस यही एक पल है"।

बहुत देर तक - एक पल की उम्र लेकर से

अंतरजाल पर सबसे प्रसिद्ध श्रृंखलाओं में से एक "ओल्ड इस गोल्ड" के स्तंभकार सुजोय चट्टर्जी ने अपनी नयी श्रृंखला कविता संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" को समर्पित किया है. जिसमें संग्रह से उन्होंने १० अपनी पसंदीदा कवितायेँ चुनी हैं जिनपर आधारित १० फ़िल्मी गीतों को भी उनके भाव से जोड़ा है.
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Episode - 08

'एल्ड इज़ गोल्ड' के सभी चाहने वालों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! जैसा कि इन दिनों इस स्तंभ में आप आनंद ले रहे हैं सजीव सारथी की लिखी कविताओं और उन कविताओं पर आधारित फ़िल्मी रचनाओं की लघु शृंखला 'एक पल की उम्र लेकर' में। आज नवी कड़ी के लिए हमने चुनी है कविता 'बहुत देर तक'।

बहुत देर तक
यूँ ही तकता रहा मैं
परिंदों के उड़ते हुए काफ़िलों को
बहुत देर तक
यूँ ही सुनता रहा मैं
सरकते हुए वक़्त की आहटों को

बहुत देर तक
डाल के सूखे पत्ते
भरते रहे रंग आँखों में मेरे
बहुत देर तक
शाम की डूबी किरणें
मिटाती रही ज़िंदगी के अंधेरे

बहुत देर तक
मेरा माँझी मुझको
बचाता रहा भँवर से उलझनों की
बहुत देर तक
वो उदासी को थामे
बैठा रहा दहलीज़ पे धड़कनों की

बहुत देर तक
उसके जाने के बाद भी
ओढ़े रहा मैं उसकी परछाई को
बहुत देर तक
उसके अहसास ने
सहारा दिया मेरी तन्हाई को।


इस कविता में कवि के अंदर की तन्हाई, उसके अकेलेपन का पता चलता है। कभी कभी ज़िंदगी यूं करवट लेती है कि जब हमारा साथी हमसे बिछड़ जाता है। हम लाख कोशिश करें उसके दामन को अपनी ओर खींचे रखने की, पर जिसको जाना होता है, वह चला जाता है, अपनी तमाम यादों के कारवाँ को पीछे छोड़े। उसकी यादें तन्हा रातों का सहारा बनती हैं। फिर एक नई सुबह आती है जब कोई नया साथी मिल जाता है। पहले पहले उस बिछड़े साथी के जगह उसे रख पाना असंभव सा लगता है, पर समय के साथ साथ सब बदल जाता है। अब नया साथी भी जैसे अपना सा लगने लगता है जो इस तन्हा ज़िंदगी में रोशनी की किरण बन कर आया है। और जीवन चक्र चलता रहता है। एक बार फिर। "फिर किसी शाख़ नें फेंकी छाँव, फिर किसी शाख़ नें हाथ हिलाया, फिर किसी मोड़ पे उलझे पाँव, फिर किसी राह नें पास बुलाया"। किसी के लिए ज़िंदगी नहीं रुकती। वक़्त के साथ हर ज़ख़्म भरता नहीं, फिर भी जीते हैं लोग कोई मरता नहीं। तो उस राह नें अपनी तरफ़ उसे बुलाया, और वो उस राह पर चल पड़ा, फिर एक बार। आइए सुना जाये राहुल देव बर्मन के संगीत में फ़िल्म 'लिबास' में लता मंगेशकर की आवाज़, गीत एक बार फिर गुलज़ार साहब का।

अलाव - एक और कविता, संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" से

अंतरजाल पर सबसे प्रसिद्ध श्रृंखलाओं में से एक "ओल्ड इस गोल्ड" के स्तंभकार सुजोय चट्टर्जी ने अपनी नयी श्रृंखला कविता संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" को समर्पित किया है. जिसमें संग्रह से उन्होंने १० अपनी पसंदीदा कवितायेँ चुनी हैं जिनपर आधारित १० फ़िल्मी गीतों को भी उनके भाव से जोड़ा है.
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Episode - 08

'एक पल की उम्र लेकर' - सजीव सारथी की लिखी कविताओं की इस शीर्षक से किताब में से चुनकर १० कविताओं पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की आठवीं कड़ी में आप सभी का स्वागत है। हमें आशा है कि अब तक इस शृंखला में प्रस्तुत कविताओं और गीतों का आपने भरपूर स्वाद चखा होगा। आज की कविता है 'अलाव'।

तुम्हारी याद
शबनम
रात भर बरसती रही
सर्द ठंडी रात थी
मैं अलाव में जलता रहा
सूखा बदन सुलगता रहा
रूह तपती रही
तुम्हारी याद
शबनम
रात भर बरसती रही

शायद ये आख़िरी रात थी
तुमसे ख़्वाबों में मिलने की
जलकर ख़ाक हो गया हूँ
बुझकर राख़ हो गया हूँ
अब न रहेंगे ख़्वाब
न याद
न जज़्बात ही कोई
इस सर्द ठंडी रात में
इस अलाव में
एक दिल भी बुझ गया है।


बाहर सावन की फुहारें हैं, पर दिल में आग जल रही है। कमरे के कोने में दीये की लौ थरथरा रही है। पर ये लौ दीये की है या ग़म की समझ नहीं आ रहा। बाहर पेड़-पौधे, कीट-पतंगे, सब रिमझिम फुहारों में नृत्य कर रहे हैं, और यह क्या, मैं तो बिल्कुल सूखा हूँ अब तक। काश मैं भी अपने उस प्रिय जन के साथ भीग पाती! पर यह क्या, वह लौ भी बुझी जा रही है। चश्म-ए-नम भी बह बह कर सूख चुकी है, बस गालों पर निशान शेष है। जाने कब लौटेगा वो, जो निकला था कभी शहर की ओर, एक अच्छी ज़िंदगी की तलाश में। जाने यह दूरी कब तक जान लेती रहेगी, जाने इंतज़ार की घड़ियों का कब ख़ातमा होगा। शायर मख़्दूम महिउद्दीन नें नायिका की इसी बेकरारी, बेचैनी और दर्द को समेटा था १९७९ की फ़िल्म 'गमन' की एक ग़ज़ल में। जयदेव के संगीत में छाया गांगुली के गाये इस अवार्ड-विनिंग् ग़ज़ल को आज की इस कविता के साथ सुनना बड़ा ही सटीक मालूम होता है। लीजिए ग़ज़ल सुनने से पहले पेश है इसके तमाम शेर...

आपकी याद आती रही रातभर,
चश्म-ए-नम मुस्कुराती रही रातभर।

रातभर दर्द की शमा जलती रही,
ग़म की लौ थरथराती रही रातभर।

बाँसुरी की सुरीली सुहानी सदा,
याद बन बन के आती रही रातभर।

याद के चाँद दिल में उतरते रहे,
चांदनी जगमगाती रही रातभर।

कोई दीवाना गलियों में फ़िरता रहा,
कोई आवाज़ आती रही रातभर।


वो - कविता संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" से

अंतरजाल पर सबसे प्रसिद्ध श्रृंखलाओं में से एक "ओल्ड इस गोल्ड" के स्तंभकार सुजोय चट्टर्जी ने अपनी नयी श्रृंखला कविता संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" को समर्पित किया है. जिसमें संग्रह से उन्होंने १० अपनी पसंदीदा कवितायेँ चुनी हैं जिनपर आधारित १० फ़िल्मी गीतों को भी उनके भाव से जोड़ा है.
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Episode - 07

'ओल्ड इज़ गोल्ड' स्तंभ के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय और सजीव का प्यार भरा नमस्कार! आज इस सुरीली महफ़िल की शमा जलाते हुए पेश कर रहे हैं सजीव सारथी की लिखी कविता 'वो'। लघु शृंखला 'एक पल की उम्र लेकर' की यह है सातवीं कड़ी।

समय की पृष्ठभूमि पर
बदलते रहे चित्र
कुछ चेहरे बने
कुछ बुझ गए
कुछ कदम साथ चले
कुछ खो गए
पर वो
उसकी ख़ुशबू रही साथ सदा
उसका साया साथ चला मेरे
हमेशा

टूटा कभी जब हौंसला
और छूटे सारे सहारे
उन थके से लम्हों में
डूबी-डूबी तन्हाइयों में
वो पास आकर
ज़ख़्मों को सहलाता रहा
उसके कंधों पर रखता हूँ सर
तो बहने लगता है सारा गुबार
आँखों से

वो समेट लेता है मेरे सारे आँसू
अपने दामन में
फिर प्यार से काँधे पर रख कर हाथ
कहता है - अभी हारना नहीं
अभी हारना नहीं
मगर उसकी उन नूर भरी
चमकती
मुस्कुराती
आँखों में
मैं देख लेता हूँ
अपने दर्द का एक
झिलमिलाता-सा कतरा।


इसमें कोई शक़ नहीं कि उस एक इंसान की आँखों में ही अपनी परछाई दिखती है, अपना दर्द बस उसी की आँखों से बहता है। जिस झिलमिलाते कतरे की बात कवि नें उपर कविता की अंतिम पंक्ति में की है, वह कतरा कभी प्यास बुझाती है तो कभी प्यास और बढ़ा देती है। यह सोचकर दिल को सुकून मिलता है कि कोई तो है जो मेरे दर्द को अपना दर्द समझता है, और दूसरी तरफ़ यह सोचकर मन उदास हो जाता है कि मेरे ग़मों की छाया उस पर भी पड़ रही है, उसे परेशान कर रही है। यह कतरा कभी सुकून बन कर तो कभी परेशानी बनकर बार बार आँखों में झलक दिखा जाता है। और कतरे की बात करें तो यह जीवन भी तो टुकड़ों में, कतरों में ही मिलता है न? शायद ही कोई ऐसा होगा जिसे हमेशा लगातार जीवन में ख़ुशी, सफलता, यश, धन की प्राप्ति होती होगी। समय सदा एक जैसा नहीं रहता। जीवन में हर चीज़ टुकड़ों में मिलती है, और सबको इसी में संतुष्ट भी रहना चाहिए। अगर सबकुछ एक ही पल में, एक साथ मिल जाए फिर ज़िंदगी का मज़ा ही क्या! ज़िंदगी की प्यास हमेशा बनी रहनी चाहिए, तभी इंसान पर ज़िंदगी का नशा चढ़ा रहेगा। फ़िल्म 'इजाज़त' में गुलज़ार साहब नें कतरा कतरा ज़िंदगी की बात कही थी - "कतरा कतरा मिलती है, कतरा कतरा जीने दो, ज़िंदगी है, बहने दो, प्यासी हूँ मैं प्यासी रहने दो"। आशा भोसले का गाया और राहुल देव बर्मन का स्वरबद्ध किया यह गीत 'सुपरिम्पोज़िशन' का एक अनूठा उदाहरण है। आइए सुना जाए!

लम्स तुम्हारा - कविता संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" से

अंतरजाल पर सबसे प्रसिद्ध श्रृंखलाओं में से एक "ओल्ड इस गोल्ड" के स्तंभकार सुजोय चट्टर्जी ने अपनी नयी श्रृंखला कविता संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" को समर्पित किया है. जिसमें संग्रह से उन्होंने १० अपनी पसंदीदा कवितायेँ चुनी हैं जिनपर आधारित १० फ़िल्मी गीतों को भी उनके भाव से जोड़ा है.
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Episode - 06

आज रविवार की शाम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक नए सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं, नमस्कार! पिछले हफ़्ते आपनें सजीव सारथी की लिखी कविताओं की किताब 'एक पल की उम्र लेकर' से चुन कर पाँच कविताओं पर आधारित पाँच फ़िल्मी गीत सुनें, इस हफ़्ते पाँच और कविताओं तथा पाँच और गीतों को लेकर हम तैयार हैं। तो स्वागत है आप सभी का, लघु शृंखला 'एक पल की उम्र लेकर' की छठी कड़ी में। इस कड़ी के लिए हमने चुनी है कविता 'लम्स तुम्हारा'।

उस एक लम्हे में
जिसे मिलता है लम्स तुम्हारा
दुनिया सँवर जाती है
मेरे आस-पास
धूप छूकर गुज़रती है किनारों से
और जिस्म भर जाता है
एक सुरीला उजास
बादल सर पर छाँव बन कर आता है
और नदी धो जाती है
पैरों का गर्द सारा
हवा उड़ा ले जाती है
पैरहन और कर जाती है मुझे बेपर्दा

खरे सोने सा, जैसा गया था रचा
उस एक लम्हे में
जिसे मिलता है लम्स तुम्हारा
कितना कुछ बदल जाता है
मेरे आस-पास।


हमारी ज़िंदगी में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनसे मिल कर अच्छा लगता है, जिनके साथ हम दिल की बातें शेयर कर सकते हैं। और ऐसे लोगों में एक ख़ास इंसान ऐसा होता है जो बाकी सब से ख़ास होता है, जिसके ज़िक्र से ही होठों पर मुस्कान आ जाती है, जिसके बारे में किसी को कहते वक़्त आँखों में चमक आ जाती है, जिसकी बातें करते हुए होंठ नहीं थकते। और जब उस ख़ास शख़्स से मुलाक़ात होती है तो उस मुलाक़ात की बात ही कुछ और होती है। ऐसा लगता है कि जैसे जीवन में कोई तनाव नहीं है, कोई दुख नहीं है। उसकी आँखों की चमक सारे दुखों पर जैसे पर्दा डाल देती हैं। उसकी वो नर्म छुवन जैसे सारे तकलीफ़ों पर मरहम लगा जाती है। उसकी भीनी भीनी ख़ुशबू ज़िंदगी को यूं महका जाती है कि फिर बहारों का भी इंतेज़ार नहीं रहता। वक़्त कैसे गुज़र जाता है उसके साथ पता ही नहीं चलता। बहुत ख़ुशनसीब होते हैं वो लोग जिन्हें किसी का प्यार मिलता है, सच्ची दोस्ती मिलती है। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला की पहली कड़ी में फ़िल्म 'नीला आकाश' का एक गीत बजा था, आज इसी फ़िल्म से सुनिये आशा भोसले और मोहम्मद रफ़ी का गाया "तेरे पास आके मेरा वक़्त गुज़र जाता है, दो घड़ी के लिए ग़म जाने कहाँ जाता है"। राजा मेहंदी अली ख़ान के बोल और मदन मोहन की तर्ज़।

Monday, August 8, 2011

सहज बिम्ब

मुझे आपकी कविता बहुत अच्छी लगी,क्योकि वो हैं ही अच्छी।
मुझे जो अच्छा लगा वो है आपकी भाषा-सहजता और वो बिंब जो हमारे आस-पास
हमेशा मौजूद हैं पर हम उन्हे छोड़ 'कुछ और' के चक्कर में आगे बढ़ जाते
हैं।

मनीष वन्देमातरम
कवि, उत्तर प्रदेश