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Sunday, September 25, 2011

सजीव सारथी जी ने अभिनव अभिव्यक्तियों से हिन्दी-कविता को समृद्ध किया है

' प्रसिद्ध वेबपत्रिका 'हिन्द युग्म' के 'आवाज़' मंच के अधिष्ठाता-संचालक यशस्वी संगीतकार-गीतकार श्री॰ सजीव सारथी जी का प्रथम प्रकाशित कविता-संग्रह है।

सजीव सारथी जी मूलत: गीतकार हैं; किन्तु प्रस्तुत संग्रह में अत्याधुनिक शैली में लिखित कविताएँ समाविष्ट हैं — कुछ ग़ज़लों को छोड़ कर।

यद्यपि ये रचनाएँ मुक्त-छंद में रचित हैं; किन्तु उनमें एक विशेष लय व प्रवाह है। प्रांजलता के कारण सजीव सारथी जी के काव्य में प्रभविष्णुता द्रष्टव्य है। आम आदमी को उनके काव्य का रसास्वादन करने में कोई बाधा नहीं आती। भाषा-सहजता ने काव्य को सम्प्रेषणीय बनाया है। लोक-प्रचलित शब्दावली उनके काव्य में अनायास उतरी है।

सजीव सारथी जी अपने इर्द-गिर्द की प्रकृति के प्रति बड़ी मार्मिक प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। यथा — सूरज, नदी, साहिल की रेत, बारिश, मिट्टी, सुबह की ताज़गी आदि के प्रति।

उनके काव्य-सरोकार समसामयिक सामाजिक-राजनीतिक परिवेश से भी सम्बद्ध हैं।

मानव-मनोविज्ञान की उन्हें सूक्ष्म पहचान है। 'एक पल की उम्र लेकर' शीर्षक कविता में अनुभूति की गहराई भावक के हृदय को झकझोर देती है :

सुबह के पन्नों पर पायी शाम की ही दास्ताँ
एक पल की उम्र लेकर जब मिला था कारवाँ,
वक्त तो फिर चल दिया एक नयी बहार को
बीता मौसम ढल गया और सूखे पत्ते झर गये,
चलते-चलते मंज़िलों के रास्ते भी थक गये
तब कहीं वो मोड़ जो छूटे थे किसी मुकाम पर
आज फिर से खुल गये, नये क़दमों, नयी मंज़िलों के लिए,
मुझको था ये भरम कि है मुझी से सब रोशनाँ
मैं अगर जो बुझ गया तो फिर कहाँ ये बिजलियाँ
एक नासमझ इतरा रहा था एक पल की उम्र लेकर!

सुकवि सजीव सारथी जी ने अभिनव अभिव्यक्तियों से हिन्दी-कविता को समृद्ध किया है।



डा॰ महेंद्रभटनागर

Tuesday, August 16, 2011

एक पल की उम्र लेकर - शीर्षक कविता और एक गीत सुजॉय की पसंद का

सजीव सारथी के लिखे कविता-संग्रह 'एक पल की उम्र लेकर' पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इसी शीर्षक से लघु शृंखला की आज दसवीं और अंतिम कड़ी है। आज जिस कविता को हम प्रस्तुत करने जा रहे हैं, वह इस पुस्तक की शीर्षक कविता है 'एक पल की उम्र लेकर'। आइए इस कविता का रसस्वादन करें...

सुबह के पन्नों पर पायी
शाम की ही दास्ताँ
एक पल की उम्र लेकर
जब मिला था कारवाँ
वक्त तो फिर चल दिया
एक नई बहार को
बीता मौसम ढल गया
और सूखे पत्ते झर गए
चलते-चलते मंज़िलों के
रास्ते भी थक गए
तब कहीं वो मोड़ जो
छूटे थे किसी मुकाम पर
आज फिर से खुल गए,
नए क़दमों, नई मंज़िलों के लिए

मुझको था ये भरम
कि है मुझी से सब रोशनाँ
मैं अगर जो बुझ गया तो
फिर कहाँ ये बिजलियाँ

एक नासमझ इतरा रहा था
एक पल की उम्र लेकर।

ज़िंदगी की कितनी बड़ी सच्चाई कही गई है इस कविता में। जीवन क्षण-भंगुर है, फिर भी इस बात से बेख़बर रहते हैं हम, और जैसे एक माया-जाल से घिरे रहते हैं हमेशा। सांसारिक सुख-सम्पत्ति में उलझे रहते हैं, कभी लालच में फँस जाते हैं तो कभी झूठी शान दिखा बैठते हैं। कल किसी नें नहीं देखा पर कल का सपना हर कोई देखता है। यही दुनिया का नियम है। इसी सपने को साकार करने का प्रयास ज़िंदगी को आगे बढ़ाती है। लेकिन साथ ही साथ हमें यह भी याद रखनी चाहिए कि ज़िंदगी दो पल की है, इसलिए हमेशा ऐसा कुछ करना चाहिए जो मानव-कल्याण के लिए हो, जिससे समाज का भला हो। एक पीढ़ी जायेगी, नई पीढ़ी आयेगी, दुनिया चलता रहेगा, पर जो कुछ ख़ास कर जायेगा, वही अमर कहलाएगा। भविष्य तो किसी नें नहीं देखा, इसलिए हमें आज में ही जीना चाहिए और आज का भरपूर फ़ायदा उठाना चाहिए, क्या पता कल हो न हो, कल आये न आये! इसी विचार को गीत के रूप में प्रस्तुत किया था साहिर नें फ़िल्म 'वक़्त' के रवि द्वारा स्वरवद्ध और आशा भोसले द्वारा गाये हुए इस गीत में - "आगे भी जाने ना तू, पीछे भी जाने ना तू, जो भी है बस यही एक पल है"।

अलाव - एक और कविता, संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" से

अंतरजाल पर सबसे प्रसिद्ध श्रृंखलाओं में से एक "ओल्ड इस गोल्ड" के स्तंभकार सुजोय चट्टर्जी ने अपनी नयी श्रृंखला कविता संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" को समर्पित किया है. जिसमें संग्रह से उन्होंने १० अपनी पसंदीदा कवितायेँ चुनी हैं जिनपर आधारित १० फ़िल्मी गीतों को भी उनके भाव से जोड़ा है.
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Episode - 08

'एक पल की उम्र लेकर' - सजीव सारथी की लिखी कविताओं की इस शीर्षक से किताब में से चुनकर १० कविताओं पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की आठवीं कड़ी में आप सभी का स्वागत है। हमें आशा है कि अब तक इस शृंखला में प्रस्तुत कविताओं और गीतों का आपने भरपूर स्वाद चखा होगा। आज की कविता है 'अलाव'।

तुम्हारी याद
शबनम
रात भर बरसती रही
सर्द ठंडी रात थी
मैं अलाव में जलता रहा
सूखा बदन सुलगता रहा
रूह तपती रही
तुम्हारी याद
शबनम
रात भर बरसती रही

शायद ये आख़िरी रात थी
तुमसे ख़्वाबों में मिलने की
जलकर ख़ाक हो गया हूँ
बुझकर राख़ हो गया हूँ
अब न रहेंगे ख़्वाब
न याद
न जज़्बात ही कोई
इस सर्द ठंडी रात में
इस अलाव में
एक दिल भी बुझ गया है।


बाहर सावन की फुहारें हैं, पर दिल में आग जल रही है। कमरे के कोने में दीये की लौ थरथरा रही है। पर ये लौ दीये की है या ग़म की समझ नहीं आ रहा। बाहर पेड़-पौधे, कीट-पतंगे, सब रिमझिम फुहारों में नृत्य कर रहे हैं, और यह क्या, मैं तो बिल्कुल सूखा हूँ अब तक। काश मैं भी अपने उस प्रिय जन के साथ भीग पाती! पर यह क्या, वह लौ भी बुझी जा रही है। चश्म-ए-नम भी बह बह कर सूख चुकी है, बस गालों पर निशान शेष है। जाने कब लौटेगा वो, जो निकला था कभी शहर की ओर, एक अच्छी ज़िंदगी की तलाश में। जाने यह दूरी कब तक जान लेती रहेगी, जाने इंतज़ार की घड़ियों का कब ख़ातमा होगा। शायर मख़्दूम महिउद्दीन नें नायिका की इसी बेकरारी, बेचैनी और दर्द को समेटा था १९७९ की फ़िल्म 'गमन' की एक ग़ज़ल में। जयदेव के संगीत में छाया गांगुली के गाये इस अवार्ड-विनिंग् ग़ज़ल को आज की इस कविता के साथ सुनना बड़ा ही सटीक मालूम होता है। लीजिए ग़ज़ल सुनने से पहले पेश है इसके तमाम शेर...

आपकी याद आती रही रातभर,
चश्म-ए-नम मुस्कुराती रही रातभर।

रातभर दर्द की शमा जलती रही,
ग़म की लौ थरथराती रही रातभर।

बाँसुरी की सुरीली सुहानी सदा,
याद बन बन के आती रही रातभर।

याद के चाँद दिल में उतरते रहे,
चांदनी जगमगाती रही रातभर।

कोई दीवाना गलियों में फ़िरता रहा,
कोई आवाज़ आती रही रातभर।


वो - कविता संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" से

अंतरजाल पर सबसे प्रसिद्ध श्रृंखलाओं में से एक "ओल्ड इस गोल्ड" के स्तंभकार सुजोय चट्टर्जी ने अपनी नयी श्रृंखला कविता संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" को समर्पित किया है. जिसमें संग्रह से उन्होंने १० अपनी पसंदीदा कवितायेँ चुनी हैं जिनपर आधारित १० फ़िल्मी गीतों को भी उनके भाव से जोड़ा है.
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Episode - 07

'ओल्ड इज़ गोल्ड' स्तंभ के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय और सजीव का प्यार भरा नमस्कार! आज इस सुरीली महफ़िल की शमा जलाते हुए पेश कर रहे हैं सजीव सारथी की लिखी कविता 'वो'। लघु शृंखला 'एक पल की उम्र लेकर' की यह है सातवीं कड़ी।

समय की पृष्ठभूमि पर
बदलते रहे चित्र
कुछ चेहरे बने
कुछ बुझ गए
कुछ कदम साथ चले
कुछ खो गए
पर वो
उसकी ख़ुशबू रही साथ सदा
उसका साया साथ चला मेरे
हमेशा

टूटा कभी जब हौंसला
और छूटे सारे सहारे
उन थके से लम्हों में
डूबी-डूबी तन्हाइयों में
वो पास आकर
ज़ख़्मों को सहलाता रहा
उसके कंधों पर रखता हूँ सर
तो बहने लगता है सारा गुबार
आँखों से

वो समेट लेता है मेरे सारे आँसू
अपने दामन में
फिर प्यार से काँधे पर रख कर हाथ
कहता है - अभी हारना नहीं
अभी हारना नहीं
मगर उसकी उन नूर भरी
चमकती
मुस्कुराती
आँखों में
मैं देख लेता हूँ
अपने दर्द का एक
झिलमिलाता-सा कतरा।


इसमें कोई शक़ नहीं कि उस एक इंसान की आँखों में ही अपनी परछाई दिखती है, अपना दर्द बस उसी की आँखों से बहता है। जिस झिलमिलाते कतरे की बात कवि नें उपर कविता की अंतिम पंक्ति में की है, वह कतरा कभी प्यास बुझाती है तो कभी प्यास और बढ़ा देती है। यह सोचकर दिल को सुकून मिलता है कि कोई तो है जो मेरे दर्द को अपना दर्द समझता है, और दूसरी तरफ़ यह सोचकर मन उदास हो जाता है कि मेरे ग़मों की छाया उस पर भी पड़ रही है, उसे परेशान कर रही है। यह कतरा कभी सुकून बन कर तो कभी परेशानी बनकर बार बार आँखों में झलक दिखा जाता है। और कतरे की बात करें तो यह जीवन भी तो टुकड़ों में, कतरों में ही मिलता है न? शायद ही कोई ऐसा होगा जिसे हमेशा लगातार जीवन में ख़ुशी, सफलता, यश, धन की प्राप्ति होती होगी। समय सदा एक जैसा नहीं रहता। जीवन में हर चीज़ टुकड़ों में मिलती है, और सबको इसी में संतुष्ट भी रहना चाहिए। अगर सबकुछ एक ही पल में, एक साथ मिल जाए फिर ज़िंदगी का मज़ा ही क्या! ज़िंदगी की प्यास हमेशा बनी रहनी चाहिए, तभी इंसान पर ज़िंदगी का नशा चढ़ा रहेगा। फ़िल्म 'इजाज़त' में गुलज़ार साहब नें कतरा कतरा ज़िंदगी की बात कही थी - "कतरा कतरा मिलती है, कतरा कतरा जीने दो, ज़िंदगी है, बहने दो, प्यासी हूँ मैं प्यासी रहने दो"। आशा भोसले का गाया और राहुल देव बर्मन का स्वरबद्ध किया यह गीत 'सुपरिम्पोज़िशन' का एक अनूठा उदाहरण है। आइए सुना जाए!

लम्स तुम्हारा - कविता संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" से

अंतरजाल पर सबसे प्रसिद्ध श्रृंखलाओं में से एक "ओल्ड इस गोल्ड" के स्तंभकार सुजोय चट्टर्जी ने अपनी नयी श्रृंखला कविता संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" को समर्पित किया है. जिसमें संग्रह से उन्होंने १० अपनी पसंदीदा कवितायेँ चुनी हैं जिनपर आधारित १० फ़िल्मी गीतों को भी उनके भाव से जोड़ा है.
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Episode - 06

आज रविवार की शाम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक नए सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं, नमस्कार! पिछले हफ़्ते आपनें सजीव सारथी की लिखी कविताओं की किताब 'एक पल की उम्र लेकर' से चुन कर पाँच कविताओं पर आधारित पाँच फ़िल्मी गीत सुनें, इस हफ़्ते पाँच और कविताओं तथा पाँच और गीतों को लेकर हम तैयार हैं। तो स्वागत है आप सभी का, लघु शृंखला 'एक पल की उम्र लेकर' की छठी कड़ी में। इस कड़ी के लिए हमने चुनी है कविता 'लम्स तुम्हारा'।

उस एक लम्हे में
जिसे मिलता है लम्स तुम्हारा
दुनिया सँवर जाती है
मेरे आस-पास
धूप छूकर गुज़रती है किनारों से
और जिस्म भर जाता है
एक सुरीला उजास
बादल सर पर छाँव बन कर आता है
और नदी धो जाती है
पैरों का गर्द सारा
हवा उड़ा ले जाती है
पैरहन और कर जाती है मुझे बेपर्दा

खरे सोने सा, जैसा गया था रचा
उस एक लम्हे में
जिसे मिलता है लम्स तुम्हारा
कितना कुछ बदल जाता है
मेरे आस-पास।


हमारी ज़िंदगी में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनसे मिल कर अच्छा लगता है, जिनके साथ हम दिल की बातें शेयर कर सकते हैं। और ऐसे लोगों में एक ख़ास इंसान ऐसा होता है जो बाकी सब से ख़ास होता है, जिसके ज़िक्र से ही होठों पर मुस्कान आ जाती है, जिसके बारे में किसी को कहते वक़्त आँखों में चमक आ जाती है, जिसकी बातें करते हुए होंठ नहीं थकते। और जब उस ख़ास शख़्स से मुलाक़ात होती है तो उस मुलाक़ात की बात ही कुछ और होती है। ऐसा लगता है कि जैसे जीवन में कोई तनाव नहीं है, कोई दुख नहीं है। उसकी आँखों की चमक सारे दुखों पर जैसे पर्दा डाल देती हैं। उसकी वो नर्म छुवन जैसे सारे तकलीफ़ों पर मरहम लगा जाती है। उसकी भीनी भीनी ख़ुशबू ज़िंदगी को यूं महका जाती है कि फिर बहारों का भी इंतेज़ार नहीं रहता। वक़्त कैसे गुज़र जाता है उसके साथ पता ही नहीं चलता। बहुत ख़ुशनसीब होते हैं वो लोग जिन्हें किसी का प्यार मिलता है, सच्ची दोस्ती मिलती है। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला की पहली कड़ी में फ़िल्म 'नीला आकाश' का एक गीत बजा था, आज इसी फ़िल्म से सुनिये आशा भोसले और मोहम्मद रफ़ी का गाया "तेरे पास आके मेरा वक़्त गुज़र जाता है, दो घड़ी के लिए ग़म जाने कहाँ जाता है"। राजा मेहंदी अली ख़ान के बोल और मदन मोहन की तर्ज़।

Monday, August 8, 2011

सहज बिम्ब

मुझे आपकी कविता बहुत अच्छी लगी,क्योकि वो हैं ही अच्छी।
मुझे जो अच्छा लगा वो है आपकी भाषा-सहजता और वो बिंब जो हमारे आस-पास
हमेशा मौजूद हैं पर हम उन्हे छोड़ 'कुछ और' के चक्कर में आगे बढ़ जाते
हैं।

मनीष वन्देमातरम
कवि, उत्तर प्रदेश

Thursday, August 4, 2011

दरअसल हम मिले ही नहीं थे अब तक...कविता "मिलन" संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" से

अंतरजाल पर सबसे प्रसिद्ध श्रृंखलाओं में से एक "ओल्ड इस गोल्ड" के स्तंभकार सुजोय चट्टर्जी ने अपनी नयी श्रृंखला कविता संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" को समर्पित किया है. जिसमें संग्रह से उन्होंने १० अपनी पसंदीदा कवितायेँ चुनी हैं जिनपर आधारित १० फ़िल्मी गीतों को भी उनके भाव से जोड़ा है.
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Episode 05

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! सजीव सारथी की लिखी कविताओं की किताब 'एक पल की उम्र लेकर' से चुनी हुई १० कविताओं पर आधारित शृंखला की आज चौथी कड़ी में हमनें जिस कविता को चुना है, उसका शीर्षक है 'मिलन'।

हम मिलते रहे
रोज़ मिलते रहे
तुमने अपने चेहरे के दाग
पर्दों में छुपा रखे थे
मैंने भी सब ज़ख्म अपने
बड़ी सफ़ाई से ढाँप रखे थे
मगर हम मिलते रहे -
रोज़ नए चेहरे लेकर
रोज़ नए जिस्म लेकर
आज, तुम्हारे चेहरे पर पर्दा नहीं
आज, हम और तुम हैं, जैसे दो अजनबी
दरअसल
हम मिले ही नहीं थे अब तक
देखा ही नहीं था कभी
एक-दूसरे का सच

आज मगर कितना सुन्दर है - मिलन
आज, जब मैंने चूम लिए हैं
तुम्हारे चेहरे के दाग
और तुमने भी तो रख दी है
मेरे ज़ख्मों पर -
अपने होठों की मरहम।


मिलन की परिभाषा कई तरह की हो सकती है। कभी कभी हज़ारों मील दूर रहकर भी दो दिल आपस में ऐसे जुड़े होते हैं कि शारीरिक दूरी उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। और कभी कभी ऐसा भी होता है कि वर्षों तक साथ रहते हुए भी दो शख्स एक दूजे के लिए अजनबी ही रह जाते हैं। और कभी कभी मिलन की आस लिए दो दिल सालों तक तरसते हैं और फिर जब मिलन की घड़ी आती है तो ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता। ऐसा लगता है जैसे दो नदियाँ अलग अलग तन्हा बहते बहते आख़िरकार संगम में एक दूसरे से मिल गई हों। मिलन और जुदाई सिक्के के दो पहलु समान हैं। दुख और सुख, धूप और छाँव, ख़ुशी और ग़म जैसे जीवन की सच्चाइयाँ हैं, वैसे ही मिलन और जुदाई, दोनों की ही बारी आती है ज़िंदगी में समय समय पर, जिसके लिए आदमी को हमेशा तैयार रहना चाहिए। इसे तो इत्तेफ़ाक़ की ही बात कहेंगे न, जैसा कि गीतकार आनंद बक्शी नें फ़िल्म 'आमने-सामने' के गीत में कहा था कि "कभी रात दिन हम दूर थे, दिन रात का अब साथ है, वो भी इत्तेफ़ाक़ की बात थी, ये भी इत्तेफ़ाक़ की बात है"। बड़ा ही ख़ूबसूरत युगल गीत है लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ों में और संगीतकार कल्याणजी-आनंदजी नें भी कितना सुरीला कम्पोज़िशन तैयार किया है इस गीत के लिए। तो लीजिए आज मिलन के रंग में रंगे इस अंक में सुनिये 'आमने-सामने' फ़िल्म का यह सदाबहार गीत।

मैं डरा डरा रहता हूँ अचानक पैरों से लिपटने वाली बेलों से...कविता "जंगल" संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" से

अंतरजाल पर सबसे प्रसिद्ध श्रृंखलाओं में से एक "ओल्ड इस गोल्ड" के स्तंभकार सुजोय चट्टर्जी ने अपनी नयी श्रृंखला कविता संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" को समर्पित किया है. जिसमें संग्रह से उन्होंने १० अपनी पसंदीदा कवितायेँ चुनी हैं जिनपर आधारित १० फ़िल्मी गीतों को भी उनके भाव से जोड़ा है.
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Episode 04

ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक और शाम लेकर मैं, सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ हाज़िर हूँ। जैसा कि आप जानते हैं इन दिनों इस स्तंभ में जारी है लघु शृंखला 'एक पल की उम्र लेकर', जिसके अन्तर्गत सजीव जी की लिखी कविताओं की इसी शीर्षक से किताब में से चुनकर १० कविताओं पर आधारित फ़िल्मी गीत बजाये जा रहे हैं। आज की कविता का शीर्षक है 'जंगल'।

यह जंगल मेरा है
मगर मैं ख़ुद इसके
हर चप्पे से नहीं हूँ वाकिफ़
कई अंधेरे घने कोने हैं
जो कभी नहीं देखे

मैं डरा डरा रहता हूँ
अचानक पैरों से लिपटने वाली बेलों से
गहरे दलदलों से
मुझे डर लगता है
बर्बर और ज़हरीले जानवरों से
जो मेरे भोले और कमज़ोर जानवरों को
निगल जाते हैं

मैं तलाश में भटकता हूँ,
इस जंगल के बाहर फैली शुआओं की,
मुझे यकीं है कि एक दिन
ये सारे बादल छँट जायेंगे
मेरे सूरज की किरण
मेरे जंगल में उतरेगी
और मैं उसकी रोशनी में
चप्पे-चप्पे की महक ले लूंगा
फिर मुझे दलदलों से
पैरों से लिपटी बेलों से
डर नहीं लगेगा

उस दिन -
ये जंगल सचमुच में मेरा होगा
मेरा अपना।


जंगल की आढ़ लेकर कवि नें कितनी सुंदरता से वास्तविक जीवन और दुनिया का चित्रण किया है इस कविता में। हम अपने जीवन में कितने ही लोगों के संस्पर्श में आते हैं, जिन्हें हम अपना कहते हैं, पर समय समय पर पता चलता है कि जिन्हें हम अपना समझ रहे थे, वो न जाने क्यों अब ग़ैर लगने लगे हैं। हमारे अच्छे समय में रिश्तेदार, सगे संबंधी और मित्र मंडली हमारे आसपास होते हैं, पर बुरे वक़्त में बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो हमारे साथ खड़े पाये जाते हैं। किसी नें ठीक ही कहा है कि बुरे वक़्त में ही सच्चे मित्र की पहचान होती है। जीवन की अँधेरी गलियों से गुज़रते हुए अहसास नहीं होता कि कितनी गंदगी आसपास फैली है, पर जब उन पर रोशनी पड़ती है तो सही-ग़लत का अंदाज़ा होता है। कई बार दिल भी टूट जाता है, पर सच तो सच है, कड़वा ही सही। और इस सच्चाई को जितनी जल्दी हम स्वीकार कर लें, हमारे लिए बेहतर है। पर टूटा दिल तो यही कहता है न कि कोई तो होता जिसे हम अपना कह लेते, चाहे वो दूर ही होता, पर होता तो कोई अपना! गुलज़ार साहब नें इस भाव पर फ़िल्म 'मेरे अपने' में एक यादगार गीत लिखा था। आज गायक किशोर कुमार का जन्मदिवस है। उन्हें याद करते हुए उन्ही का गाया यह गीत सुनते हैं जिसकी धुन बनाई है सलिल चौधरी नें।

खींच कर कुछ पल को इन मरी हुई सांसों से ज़िंदा कर लूंगा फिर, ज़िंदगी को मैं...कविता "अवकाश" संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" से

अंतरजाल पर सबसे प्रसिद्ध श्रृंखलाओं में से एक "ओल्ड इस गोल्ड" के स्तंभकार सुजोय चट्टर्जी ने अपनी नयी श्रृंखला कविता संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" को समर्पित किया है. जिसमें संग्रह से उन्होंने १० अपनी पसंदीदा कवितायेँ चुनी हैं जिनपर आधारित १० फ़िल्मी गीतों को भी उनके भाव से जोड़ा है.
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Episode 03

'एक पल की उम्र लेकर' - सजीव सारथी की कविताओं से सजी इस पुस्तक में से १० चुनिंदा कविताओं पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की तीसरी कड़ी में प्रस्तुत है कविता 'अवकाश'।

सुबह की गलियों में
अंधेरा है बहुत
अभी आँखों को मूँदे रहो
घड़ी का अलार्म जगाये अगर
रख उसके होठों पे हाथ
चुप करा दो
काला सूरज
आसमान पर लटक तो गया होगा
बाहर शोर सुनता हूँ मैं
इंसानों का, मशीनों का,
आज खिड़की के परदे मत हटाओ
आज पड़े रहने दो, दरवाज़े पर ही,
बासी ख़बरों से सने अख़बार को
किसे चाहिए ये सुबह, ये सूरज
फिर वही धूप, वही साये
वही भीड़, वही चेहरे
वही सफ़र, वही मंज़िल
वही इश्तेहारों से भरा ये शहर
वही अंधी दौड़ लगाती
फिर भी थमी-ठहरी सी
रोज़मर्रा की ये ज़िंदगी

नहीं, आज नहीं
आज इसी कमरे में
पड़े रहने दो मुझे
अपनी ही बाहों में
'हम' अतीत की गलियों में घूमेंगे
गुज़रे बीते मौसमों का सुराग ढूंढ़ेंगे
कुछ रूठे-रूठे
उजड़े-बिछड़े
सपनों को भी बुलवा लेंगे
मुझे यकीन है
कुछ तो ज़िंदा होंगे ज़रूर

खींच कर कुछ पल को इन मरी हुई सांसों से
ज़िंदा कर लूंगा फिर, ज़िंदगी को मैं।


इस कविता में कवि नें जिस अवकाश की कल्पना की है, वह मेरा ख़याल है कि हर आम आदमी करता होगा। आज की भाग-दौड़ भरी और तनावपूर्ण ज़िंदगी में कभी किसी दिन मन में ख़याल आता है कि काश आज छुट्टी मिल जाती उस गतानुगतिक ज़िंदगी से। तो फिर ख़यालों में ही सही, घूम तो आते यादों की गलियारों से; जिन गलियारों से होते हुए जाती है सड़क बर्फ़ से ढके पहाड़ों की तरफ़, वो पहाड़ें जिनमें गूंजती हुई ख़ामोशी की कल्पना कभी गुलज़ार साहब नें की थी 'मौसम' का वह सदाबहार गीत लिखते हुए। ग़ालिब के शेर "दिल ढूंढ़ता है फिर वो ही फ़ुरसत के रात दिन, बैठे रहें तसव्वुरे जाना किए हुए" को आगे बढ़ाते हुए गुलज़ार साहब नें बड़ी ख़ूबसूरती के साथ कभी जाड़ों की नर्म धूप को आंगन में बैठ कर सेंकना, कभी गरमी की रातों में छत पर लेटे हुए तारों को देखना, और कभी बर्फ़ीली वादियों में दिन गुज़ारना, इस तरह के अवकाश के दिनों का बड़ा ही सजीव चित्रण किया था। एक तरफ़ गुलज़ार साहब के ये सजीव ख़यालात और दूसरी तरफ़ सजीव जी के आम जीवन का बड़ा ही वास्तविक वर्णन, दोनों ही लाजवाब, दोनों ही अपने आप में बेहतरीन। आइए इस अवकाश की घड़ी में फ़िल्म 'मौसम' के इस गीत को सुनें। मदन मोहन का संगीत है। इस गीत के दो संस्करणों में लता-भूपेन्द्र का गाया युगल-संस्करण हमनें 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' में सुनवाया था, आइए आज सुना जाये भूपेन्द्र का एकल संस्करण।

Monday, August 1, 2011

दीवारें, जो रोज़ एक नए नाम की खड़ी कर देते हैं 'वो' दरमियाँ हमारे - सजीव सारथी

अंतरजाल पर सबसे प्रसिद्ध श्रृंखलाओं में से एक "ओल्ड इस गोल्ड" के स्तंभकार सुजोय चट्टर्जी ने अपनी नयी श्रृंखला कविता संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" को समर्पित किया है. जिसमें संग्रह से उन्होंने १० अपनी पसंदीदा कवितायेँ चुनी हैं जिनपर आधारित १० फ़िल्मी गीतों को भी उनके भाव से जोड़ा है.
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Episode 02

'ओल्ड इज़ गोल्ड' में कल से हमने शुरु की है सजीव सारथी की लिखी कविताओं की किताब 'एक पल की उम्र लेकर' से १० चुने हुए कविताओं और उनसे सम्बंधित फ़िल्मी गीतों पर आधारित यह लघु शृंखला। आज इसकी दूसरी कड़ी में प्रस्तुत है कविता 'दीवारें'।

मैं छूना चाहता हूँ तुम्हें
महसूस करना चाहता हूँ
तुम्हारा दिल
पर देखना तो दूर
मैं सुन भी नहीं पाता हूँ तुम्हें
तुम कहीं दूर बैठे हो
सरहदों के पार हो जैसे
कुछ कहते तो हो ज़रूर
पर आवाज़ों को निगल जाती हैं दीवारें
जो रोज़ एक नए नाम की
खड़ी कर देते हैं 'वो' दरमियाँ हमारे

तुम्हारे घर की खिड़की से
आसमाँ अब भी वैसा ही दिखता होगा ना
तुम्हारी रसोई से उठती उस महक को
पहचानती है मेरी भूख अब भी,
तुम्हारी छत पर बैठ कर
वो चाँदनी भर-भर पीना प्यालों में
याद होगी तुम्हें भी
मेरे घर की वो बैठक
जहाँ भूल जाते थे तुम
कलम अपनी
तुम्हारे गले से लग कर
रोना चाहता हूँ फिर मैं
और देखना चाहता हूँ फिर
तुम्हें चहकता हुआ
अपनी ख़ुशियों में
तरस गया हूँ सुनने को
तुम्हारे बच्चों की किलकारियाँ
जाने कितनी सदियाँ से
पर सोचता हूँ तो लगता है
जैसे अभी कल की ही तो बात थी
जब हम तुम पड़ोसी हुआ करते थे
और उन दिनों
हमारे घरों के दरमियाँ भी फ़कत
एक ईंट-पत्थर की
महीन-सी दीवार हुआ करती थी... बस।


दीवारें कभी दो परिवारों, दो घरों के बीच दरार पैदा कर देती हैं, तो कभी दो दिलों के बीच। सचमुच बड़ा परेशान करती हैं ये दीवारें, बड़ा सताती हैं। पर ये भी एक हकीकत है कि चाहे दुनिया कितनी भी दीवारें खड़ी कर दें, चाहे कितने भी पहरे बिठा दें, प्यार के रास्ते पर कितने ही पर्वत-सागर बिछा दें, सच्चा प्यार कभी हार स्वीकार नहीं करता। किसी न किसी रूप में प्यार पनपता है, जवान होता है। लेकिन यह तभी संभव है जब कोशिश दोनों तरफ़ से हों। कभी कभार कई कारणों से दोनों में से कोई एक रिश्ते को आगे नहीं बढ़ा पाता। ऐसे में दूसरे के दिल की आह एक सदा बनकर निकलती है। चाहे कोई सुने न सुने, पर दिल तो पुकारे ही चला जाता है। कई बार राह पर फूल बिछे होने के बावजूद किसी मजबूरी की वजह से कांटे चुनने पड़ते हैं। इससे रिश्ते में ग़लतफ़हमी जन्म लेती है और एक बार शक़ या ग़लतफ़हमी जन्म ले ले तो उससे बचना बहुत मुश्किल हो जाता है। अनिल धवन और रेहाना सुल्तान अभिनीत १९७० की फ़िल्म 'चेतना' में सपन जगमोहन के संगीत में गीतकार नक्श ल्यालपुरी नें भी एक ऐसा ही गीत लिखा था "मैं तो हर मोड़ पर तुझको दूंगा सदा, मेरी आवाज़ को, दर्द के साज़ को तू सुने न सुने"। सजीव जी की कविता 'दीवारें' को पढ़कर सब से पहले इसी गीत की याद आई थी, तो लीजिए इस ख़ूबसूरत कविता के साथ इस ख़ूबसूरत गीत का भी आनन्द लें।

सुजॉय ने चुने "एक पल की उम्र लेकर" से १० अपनी पसंदीदा कवितायेँ - आज की कविता - सरफिरा है वक्त

अंतरजाल पर सबसे प्रसिद्ध श्रृंखलाओं में से एक "ओल्ड इस गोल्ड" के स्तंभकार सुजोय चट्टर्जी ने अपनी नयी श्रृंखला कविता संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" को समर्पित किया है. जिसमें संग्रह से उन्होंने १० अपनी पसंदीदा कवितायेँ चुनी हैं जिनपर आधारित १० फ़िल्मी गीतों को भी उनके भाव से जोड़ा है.

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Episode 01

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है आप सभी का इस सुरीले सफ़र में। कृष्णमोहन मिश्र जी द्वारा प्रस्तुत दो बेहद सुंदर शृंखलाओं के बाद मैं, सुजॉय चटर्जी वापस हाज़िर हूँ इस नियमित स्तंभ के साथ। इस स्तंभ की हर लघु शृंखला की तरह आज से शुरु होने वाली शृंखला भी बहुत ख़ास है, और साथ ही अनोखा और ज़रा हटके भी। दोस्तों, आप में से बहुत से श्रोता-पाठकों को मालूम होगा कि 'आवाज़' के मुख्य सम्पादक सजीव सारथी की लिखी कविताओं का पहला संकलन हाल ही में प्रकाशित हुआ है, और इस पुस्तक का शीर्षक है 'एक पल की उम्र लेकर'। जब सजीव जी नें मुझसे अपनी इस पुस्तक के बारे में टिप्पणी चाही, तब मैं ज़रा दुविधा मे पड़ गया क्योंकि कविताओं की समीक्षा करना मेरे बस की बात नहीं। फिर मैंने सोचा कि क्यों न इस पुस्तक में शामिल कुल ११० कविताओं में से दस कविताएँ छाँट कर और उन्हें आधार बनाकर फ़िल्मी गीतों से सजी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला पेश करूँ? फ़िल्मी गीत जीवन के किसी भी पहलु से अंजान नहीं रहा है, इसलिए इन १० कविताओं से मिलते जुलते १० गीत चुनना भी बहुत मुश्किल काम नहीं था। तो सजीव जी के मना करने के बावजूद मैं यह क़दम उठा रहा हूँ और उनकी कविताओं पर आधारित प्रस्तुत कर रहा हूँ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'एक पल की उम्र लेकर'।

'एक पल की उम्र लेकर' शृंखला की पहली कड़ी के लिए इस पुस्तक में प्रकाशित जिस कविता को मैंने चुना है, वह है 'सरफ़िरा है वक़्त'। आइए पहले इस कविता को पढ़ें।

उदासी की नर्म दस्तक
होती है दिल पे हर शाम
और ग़म की गहरी परछाइंयाँ
तन्हाइयों का हाथ थामे
चली आती है
किसी की भीगी याद
आंखों में आती है
अश्कों में बिखर जाती है

दर्द की कलियाँ
समेट लेता हूँ मैं
अश्कों के मोती
सहेज के रख लेता हूँ मैं

जाने कब वो लौट आये

वो ठंडी चुभन
वो भीनी ख़ुशबू
अधखुली धुली पलकों का
नर्म नशीला जादू
तसव्वुर की सुर्ख़ किरणें
चन्द लम्हों को जैसे
डूबते हुए सूरज में समा जाती है
शाम के बुझते दीयों में
एक चमक सी उभर आती है

टूटे हुए लम्हें बटोर लेता हूँ मैं
बुझती हुई चमक बचा लेता हूँ मैं

जाने कब वो लौट आये

सरफिरा है वक़्त
कभी-कभी लौट आता है,

दोहराने अपने आप को।

शाम की उदासी, रात की तन्हाइयाँ, अंधेरों में बहती आँसू की नहरें जिन्हें अंधेरे में कोई दूसरा देख नहीं सकता, बस वो ख़ुद बहा लेता है, दिल का बोझ कम कर लेता है। किसी अपने की याद इस हद तक घायल कर देती है कि जीने की जैसे उम्मीद ही खोने लगती है। और फिर कभी अचानक मन में आशा की कोई किरण भी चमक उठती है कि उसकी याद की तरह शायद कभी वो ही लौट आये, क्योंकि वक़्त तो सरफिरा होता है न? कभी कभी दाम्पत्य जीवन में छोटी-छोटी ग़लतफ़हमिओं और अहम की वजह से पति-पत्नी में भी अनबन हो जाती है, रिश्ते में दरार आती है, और कई बार दोनों अलग भी हो जाते हैं। लेकिन कुछ ही समय में होता है पछतावा, अनुताप। और ऐसे में अपने साथी की यादों के सिवा कुछ नहीं होता करीब। ऐसी ही एक सिचुएशन बनी थी फ़िल्म 'गाइड' में। गीतकार शैलेन्द्र की कलम नें देव आनन्द साहब की मनस्थिति को कुछ इन शब्दों में क़ैद किया था - "दिन ढल जाये हाये रात न जाये, तू तो न आये तेरी याद सताये"। सजीव जी की उपर्योक्त कविता में भी मुझे इसी भाव की छाया मिलती है। तो आइए सुना जाये फ़िल्म 'गाइड' का यह सदाबहार गीत रफ़ी साहब की आवाज़ में। आज ३१ जुलाई, रफ़ी साहब की पुण्यतिथि पर 'हिंद-युग्म आवाज़' परिवार की तरफ़ से हम इस गायकों के शहंशाह को देते हैं ये सुरीली श्रद्धांजली।

सजीव सारथी नें अपने काव्य संग्रह के साथ ही अंतर्जाल की दुनिया के बाहर स्वयं को विस्तारित किया है


“उस “सारथी” के नाम जो इस सजीव शरीर में बसता है।" ‘सजीव सारथी’ नें समर्पण के इसी वाक्यांश में अपने पहले काव्य संग्रह “एक पल की उम्र ले कर” के मर्म को प्रस्तुत किया है। कवितायें पढते हुए बगीचे में खिले नये पुष्प की खुशबू सी आती है, तो बरसाती नदी के प्रवाह से निकलता कल कल स्वर सा भी महसूस होता है। कोई बनावटीपन नहीं, कोई लच्छेदार भाषण-संभाषण नहीं, कहीं कोई ओज-आक्रोश नहीं, कोई धारा-विचारधारा के प्रलाप नहीं अपितु विशुद्ध कवितायें हैं इस संग्रह में। हेवेन्ली बेबी बुक्स, कोच्चि केरला से प्रकाशित संग्रह में प्रस्तुत रचनायें इतनी तराशी हुई हैं कि यकीन करना कठिन है यह किसी ‘अहिन्दी भाषी’ की कवितायें हैं। हर शब्द सटीक और भाव भरा जैसे यह सजीव की अपनी ही भाषा है, हिन्दी-अहिन्दी की दीवार के मायने क्या? अपनी भूमिका में शास्त्री जे सी फिलिप सजीव की कविताओं को सहज कवितायें पारिभाषित करते हैं। वे लिखते हैं कि “अधिकतर कवियों के साथ परेशानी यह है कि उनकी दस रचनायें पढ लीजिये तो उसके बाद की हर रचना पहले जैसी लगती है। लेकिन सजीव की हर रचना अपने आप में नयापन लिये रहती है.. “। वे आगे लिखते हैं - “प्रस्तुत पुस्तक की रचनाओं नें सिर्फ यादों और कुंठाओं को ही नहीं बल्कि मन की मधुर-से-मधुर अभिलाषाओं को एवं दिमाग की कठिन से कठिन (दार्शनिक) कसरतों को भी अपनी पंक्ति में बाँधा है“। उन्होंने पुन: लिखा है - “आज के पाठक को कविता ऎसी चाहिये जो उसे आकर्षित करे, पढते ही अर्थ समझ में आने लगे, और साथ-ही-साथ आँखों से हो कर गुजरते शब्द मन को स्पर्श भी करते जाये”।

सजीव की कविताओं पर इस उद्धरणों से बात आगे बढायी जा सकती है। मैं सजीव की कविताओं पर “नवोदित रचनाकार” की परची नहीं चिपका सकता। कथ्य, शिल्प और दार्शनिक चिंतन कवि को रचना-संसार में कई पायदानों उपर खडा करता है। कविता के शीर्षक छोटे हैं और प्राय: उनमें पूरी रचना का मर्म मिल जाता है। कविता में दार्शनिक तत्वों की अधिकता के कारण कई बार एक कविता पढते हुए अनेक कवितायें पढ जाने का भान होता है। कवितायें हर पठन पर नये स्वरूप और नये ही परिधान में झांकती मुस्कुराती हुई पाठक से स्वयं को एकाधिक बार बढे जाने का आग्रह करती हैं। संग्रह में प्राय: मुक्त कवितायें हैं लेकिन उनमें रसानुभूति है तथा अलंकारिकता है। मैं विषयों की विविधता पर भी अवश्य चर्चा करना चाहूंगा। सजीव नें अपने अंतस को भी विषय बनाया है, अपनी सोच को भी विषय बनाया है, अपने ‘ऑब्जरवेशन’ को भी विषय बनाया है, अपने सामाजिक सरोकारों को भी विषय बनाया है, प्रकृति को भी विषय बनाया है तो अपने सपनों को भी विषय बनाया है।

कवि की रचनाओं में “मैं” तत्व अनेक स्थलों पर प्रस्तुत हुआ है। यह इस लिये कि कवि अपने अनुभवों की व्याख्या अपने बिम्बों के माध्यम से स्वयं ही करना चाहता है। उसे वे प्रतीक सहज लगते हैं जिनमें वह खुद एक पात्र हो कर व्याख्यान दे सके -


चट्टान मेरी तरह खामोश है/ और मैं जड़, उसकी तरह
आज भी वो पेड मेरे सामने है/और मैं देखता हूँ
उसकी नंगी शाखों से परे/ चमकती हुई लाल गेंद
आसमान पर लटकी हुई/ मेरी पहुँच से मीलों दूर।
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सदियों से बह रहा हूँ/ किसी नदी की तरह
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कलम अपनी/ तुम्हारे गले से लग कर
रोना चाहता हूँ फिर मैं/ और देखना चाहता हूँ फिर
तुम्हें चहकता हुआ/ अपनी खुशियों में
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कल मैने दर-बदर देखा था उसके बच्चों को,
पी गयी क्या एक घर और ये शराब शायद।

सजीव सामाजिक सरोकारों से जुड कर लिखते हैं। उनकी कलम विद्रोही तो हर्गिज नहीं है लेकिन चुप रह कर बैठने वाली भी नहीं है। वे शब्द चित्र उपस्थित कर देते हैं जिन्हें पढते ही जैसे कोई पेंटिंग सी आँखों के आगे उपस्थित हो जाती है। एसा शब्द चित्र जो सोचने का धरातल देता है और पाठक पर ही फैसला छोड देता है कि यह आज का सच है और अब तुम जानों कि इसी के साथ जीना चाहते हो या प्रतिकार करना। कवि फैसले सुनाने में यकीन नहीं रखता इसी लिये शब्दचित्र परिणामों तक जा कर मुक्ताकाश हो जाते हैं...गहरी सोच में पाठक को छोड कर ये कवितायें चलती बनती हैं। सजीव नें व्यंग्य को नहीं आजमाया है यद्यपि कई बात कविताओं के अर्थों में यह छुपा-ढका सा मिलेगा। यदि आप तनिक भी संवेदनशील हैं तो मखमल से प्रतीत होने वाले सजीव के शब्द आपको चुभेंगे अवश्य -

एक नन्हीं सी चिंगारी/ कहीं राख में दबी थी
लपक कर उसने/ किरणों को छू लिया/ सूखे पत्तों को आग लगा दी
हवाओं में उडा दिया।
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कुछ धार्मिक हो जाते हैं/ रट लेते हैं वेद पुराण/ कंठस्थ कर लेते हैं
और बन जाते हैं तोते/करते रहते हैं वमन-
कुछ उधर लिये हुए शब्दों का उम्रभर/ और दूकान चलाते हैं
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तुम कौन हो सुनाने वाले/ तनिक उससे भी तो पूछो
कौन अपना है उसका
मेरा लहू गिरा है पसीना बन कर/ उसके दामन में
महक मेरी मिट्टी की/ बखूबी पहचानता है वो।
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धरती का दामन सुर्ख हुआ जाता है
फिर आदम नें खुल्द में/ किसी जुर्म को अंजाम दिया है
इस बार/ खून खुदा का बहा है शायद
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मैं एसी कोई कविता लिख पाता
कि पढने वाला/ पेट की भूख भूल जाता
और प्यासे मन की/ दाह को तृप्त कर पाता
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सभ्यता के विकास में अक्सर
विलुप्त हो जाती हैं/ हाशिये पर पडी प्रजातियाँ
विलुप्त हो रहे हैं हल जोतते/ जुम्मन और होरी आज
मेरे गाँव में/ विलुप्त हो रहा है – किसान।
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अपने अपने सपनों से जागते हैं
आदमी, चिडिया/ खरगोश, भेडिया
और, अपने पेट की अतडियों में/ बजते हुए नगाडे सुनते हैं
और फिर शुरु होती है/ अपनी अपनी भूख से लडते जीवों की/ दिनचर्या
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मुझको ही तो ढाल बना कर आखिर
तलवार चला रहे हो तुम
जन्मों से जी रहा हूँ इस संग्राम को मैं
लहू से अपने भडका रहा हूँ इस आग को मैं
थक चुका हूँ, चूक चुका हूँ/खुद को बहुत फूँक चुका हूँ
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शब्द कुछ/कल शाम निकले थे/बाजार में घूमने
रात शहर में हुए/बम धमाकों में मारे गये
दोस्ती/प्यार/विश्वास/इंसानियत
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खोखली है बुलंदियाँ/ दिखावे की सब रौनक है
ये वो इमारत है/ जिसकी नींव तले/ कई ख्वाब दफन हैं।

मैं इन उद्धरित पंक्तियों के माध्यम से यह वकालत करना चाहता हूँ कि समकालीनता की बहस में भी सजीव की ये कविताए अपना स्थान रखती हैं। आप इन्हें हल्के में नहीं ले सकते या खारिज नहीं कर सकते। सजीव का समाज विषयक अपना दृष्टिकोण है तथा वे बिना बहस में पडे “विचारधाराओं” को भी कटघरे में खडा

करते हैं –


चारो दिशायें मिल जायें तो भी/ दुनियाँ एक हो जाये तो भी
ताकत ही राज करेगा फिर भी
कमजोर दबाये जायेंगे यूँ ही/ शासन यही रहेगा फिर भी
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भूख पेट की सब को नोचती/जिस्म की तडप भी है एक सी
चाह भी वही, आह भी वही/मंजिलें वही, राह भी वही
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क्यों है आखिर/ अपनी ही सत्ता से कटा छटा
क्यों है यूँ/अपने ही वतन में अजनबी-/आम आदमी।

मैं कवि के स्त्रीविमर्श को भी आडंबरविहीन मानता हूँ। उद्धरित कविता असाधारण है जो माँ-बेटी की नोक झोंक पर ही केन्द्रित नहीं है अपितु वह माँ की प्रसव पीडा से ले कर एक बेटी के अपने साथ होने के कोमल असहास की बानगी भी है। हजारो अर्थ हैं इन पंक्तियों के और इस विषय पर हर बहस के केन्द्र में ये पंक्तियाँ स्वत: पायी जाती हैं -

थाली में रखे/ मटर के दाने/ बिखर गये
”हे मरी”/माँ नें एक/ मीठी सी गाली दी
अपनी किस्मत को कोसा/ फिर उठ कर/ बिखरे दाने बीनने लगी।
आज उस बच्ची का जन्मदिन है।
आज वह पूरे नौ साल की हो जायेगी
नौ साल, नौ महीने की।

इसी तरह अपने बेटे को स्कूल छोडने जाता और समझाता कोई मजदूर जब बडी बडी कोठियाँ देखता है तो उसके सपनों के स्वर उँचे हो जाते हैं। लेकिन इतना ही तो नहीं....कविता वर्ग संघर्ष की बात करते हुए बिना जिन्दाबाद और मुर्दाबाद के नारे लगाये धरती और आसमान के क्षितिज बन जाने का ही स्वप्न है -

यूँ भी उसका स्वर तेज है
मगर उसकी आवाज/ उस गली से गुजरते वक्त
और तेज हो जाती है/ जहाँ कोठियाँ हैं
बडे-बडे रईसों की।

कविता लिखी नहीं जाती यह अवतरित होती है। यह जितना सरोकारों को अभिव्यक्त करती है उतना ही आत्ममंथन भी। कविता आग या तपिश ही नहीं होती वह तो सुनहला मोरपंख भी होती है और सुबह की पहली धूप भी होती है। कविता बाँसुरी की धुन भी है और बारिश की रिमझिम भी। यह तो कवि है जब बारिश में जंगल को देखता है तो उसे नाचता मोर दिखता है लेकिन शहर भी तो खूबसूरत है? बारिश उसे भी तो नहला कर तरोताजा कर जाती है? मिट्टी का सोंधापन उसे भी तो महमाता है और कवि कैसे चूक सकता हैं? उसकी कलम सजीव हो उठती है -


सुरमई आकाश बरसता है/ आशीर्वाद की तरह
बूंदों की टप टप स्वरलहरियों से/ एक भीनी भीनी, सौंधी सौंधी
ठंडक सी उतरती है/ बारिश में भीगता है जब ये शहर।

किंतु एसा भी नहीं कि गाँव सजीव को नहीं खींचता या कि बीता हुआ समय उसे शब्दों की चित्रकारी करने को बाध्य नहीं करता। वे बखूबी से लिखते हैं –


कीचड से सने पाँव ले कर
कच्ची पगडंडियों से गुजरते थे
उन कदमों के निशां/ अभी मिटे नहीं हैं

कविता में बिम्ब नये हैं और जीवंत हैं। जैसे चित्रकार नें सही गढा है और सच्चे रंग भरे हैं। बिम्ब अनूठे भी हैं और कई बात चमत्कृत भी कर देते हैं। बिम्ब किसी दूसरी दुनिया से उठा कर नहीं लाये गये हैं वे आस-पास से ही बीने बटोरे गये हैं। कभी बोतल बिम्ब है तो कभी शतरंज तो कभी पीपल तो कभी दर्पण -

मैं देखता हूँ अक्सर/एक छोटी सी बोतल
जिसमें कैद है/ एक देवता और एक शैतान
जो बिना एक हुए/ आ नहीं सकते बोतल के बाहर
एक हो कर दोनों/ कैद से तो छूटते हैं
पर लडकर फिर अलग हो जाते हैं।
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मन की शतरंज/ चौंसठ दोरंगी खानों की बिसात
उसपार सोलहों मोहरे तुम्हारे/ इसपार सोलहों मेरे
तुम आशा के अनुरूप/ अडिग, आश्वस्त और निश्चिंत
मैं बीते अनुभवों से कुछ/ सहमा, डरा, और अव्यवस्थित
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ज़िन्दगी तो थी वहीं/ जिसके सायों को हमनें
डूबते सूरज की आँखों में देखा था
उस बूढे पीपल की/ छाँव में ही सुकून था कहीं
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नींद के टूटे दर्पण से/ कुछ ख्वाब चटख कर
बिखर गये थे कभी/ चुभते हैं अब भी आँखों में
वो काँच के दाने।

सजीव की आत्मचिंतन और आत्ममंथन करती हुई कवितायें कहीं भी कुंठित नहीं है। वह पाठक को घुटाती नहीं है। ये कवितायें आशावादी हैं, उम्मीद से भरी हुई हैं। ये कवितायें आध्यात्म भी हैं और श्रंगार भी। कवितायें हार को अस्वीकार भी हैं तो उम्मीद का अम्बार भी। ये कभी स्वयं प्यास हैं तो कभी प्रश्न। कवितायें कभी सुझाव हैं तो कभी उत्तर भी हैं -

कितने किनारे/ पानी में समा गये
फिर भी प्यासे रहे
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जैसे कुछ अनसुलझी गुत्थियाँ/ कुछ अनुत्तरित सवालों का
समूहगान जैसे/ कैसी विडम्बना है ये
आखिर हम मुक्त क्यों नहीं हो पाते?
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खोल दो इन दरीचों को/ ताकि एक बार फिर
गुलाबी धूप/छू सके मुझे आ कर
इन सब्ज झरोखों से।
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मगर कुछ बदनसीब/ एसे भी रह जाते हैं
जिनपर कोई रंग नहीं चढ पाता पर भी
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हम अपने बचपन की केंचुली को
धीरे धीरे उतारते हैं।
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एसा स्पर्श दे दो मुझे
जिसकी अनुभूति के लिये/ उम्र भी एक महज हो
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मेरे तलवों तले से निकलता
ये साया/ मेरा है भी या नहीं
या फिर मेरे जैसा कोई और है
जिसने मेरे पैरों में/ सफर बाँध रखा है।
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फिर क्यों, नाखुदा को खुदा कहें
क्यों सहारों को ढूंढते रहें
आओ वक्त के पंखों को परवाज दें
एक नयी उदान दें/ अनजान दिशाओं की ओर।
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तभी कहीं दूर से, एक किरण आई
पलकों पर बिखर गयी/ लगा किसी नें कहा हो-
उजाला हो गया/ अब तो सच को पहचानो।
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एक नासमझ इतरा रहा था
एक पल की उम्र ले कर।
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वो समेट लेता है मेरे सारे आँसू/ अपने दामन में
फिर प्यार से काँधे पर रख कर हाँथ
कहता है – अभी हारना नहीं/अभी हारना नहीं

काव्य संग्रह के अंतिम पृष्ठ पर प्रकाशित परिचय कहता है कि सजीव मूलत: एक गीतकार हैं जो कविताओं में अपने आप को तलाश करते रहते हैं। काव्य संग्रह “एक पल की उम्र ले कर” में सजीव का सिर्फ एक गीत और कुछ गज़लें ही उपलब्ध हैं। कुछ उदाहरण इस विधा में उनकी दक्षता की ओर इशारा करते हैं -

देखता है क्यों हैरान हो कर, आईना मुझे रोज,
ढूंढता है, मुखौटों के शहर में एक चेहरा – मुखौटा।
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ख्वाब बोये जो हमने, क्या बुरा किया।
चंद मुरझा गए तो क्या, खिले हैं कुछ।
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पीकर के जहर भी, सूली पर मर कर भी,
जिन्दा है सच यानी, झूठ के भाले कुंद हैं।

सजीव सारथी नें अपने काव्य संग्रह के साथ ही अंतर्जाल की दुनिया के बाहर स्वयं को विस्तारित किया है। उनके आगामी काव्यसंग्रहों की प्रतीक्षा है तथा उन्हें निरंतर सृजन के लिये हार्दिक शुभकामनायें।



Rajeev Ranjan Prasad.
Poet and Writer
Editor - Sahitya Shilpi

Saturday, July 16, 2011

A LIFETIME IN ONE MOMENT


BOOK REVIEW ‘EK PAL KI UMR LEKAR’ BY SAJEEV SARATHIE

We have a moment and a lifetime. A lifetime is a collection of moments, we all know and we all live life like that. Greatness comes to those who live every moment as a lifetime. These are the kind of thoughts brought to our mind by the title ‘Ek Pal ki Umr Lekar’ (Having a moment’s lifetime). Sajeev Sarathie in his maiden collection of poetry in Hindi entitled ‘Ek Pal ki Umr Lekar’ has tried to sum up the whole life in few words. Moreover, doing so in a language other than one’s mother tongue adds to the stature of success. Born in a small town of Kerela, Sajeev Sarathie went on to carve out a niche for himself in the literary world of our national language, Hindi.
He writes in a rhythmical flow with such ease that surpasses some of the native Hindi poets. His anthology begins with a sense of nostalgia in the poem ‘Sooraj’, flows like a river:
“Sadiyon se beh raha hoon
Kisi nadi ki tarah”
Zindagi mili hai kabhi
Kisi ghat par
To kisi kinare
Kabhi ruka hoon pal-do-pal”
(from ‘Kisi Nadi ki Tarah’)

“For centuries
I’ve been flowing like a river
Life met me sometimes
In shallow waters
Or on the banks
Have I paused for a while.”
The themes of his poetry consist of varied shades that we experience from birth till death. An aura that pervades a majority of his poems is that of nostalgia longing. Very beautifully the poet tries to contain in his words the bubbling childhood in his poem ‘Ek Yaad’. When he talks of the journey of child going to his village school and coming back home.
“Un kadmon ke nishaan
Abhi mite nahin hain.”
(from ‘Ek Yaad’)
(“Those footprints
Not wiped out yet.”)
A noticeable feature of his poetry is the use of the technique of alliteration. Quite a few poems in his anthology exhibit the trait of having a number of lines beginning with the same word.

“Aisa sparsh dedo mujhko
Jis mein surya si ushma ho
Jis mein chaand si sheetalta
Jis mein dhayan si abha ho”
(‘Sparsh’)
“Give me such a touch
That has the light of Sun
That has the soothness of moon
That has an aura of meditation.”

In all this collection of poems and ghazals is unique in the fact that a Keralite has woven a poetic yarn so beautifully in Hindi. Going through the poems one can feel the emotions and feelings of the poet looking at you from behind a line or glancing at you through a word.


AMRITBIR KAUR
Poet

एक संभावनाशील कवि से साक्षात्कार

(एक पल की उम्र लेकर – कवि सजीव सारथी. पृष्ठ संख्या : 110. Rs. 100, $ 2,
प्रकाशक : हेवेनली बेबी बुक्स, कोची केरल).
खरीदने के लिए जाएँ http://www.flipkart.com/author/sajeev-sarathie
प्रायः कविता संग्रहों को ले कर इस प्रकार की टिप्पिणियाँ सुनने को सहज ही मिल जाती हैं कि कविता अब एक इंडस्ट्री सी हो गई है, देश की हर गली नुक्कड़ पर कोई न कोई कवि ज़रूर मिल जाता है. शायद यह स्थिति कई वर्षों से है. पर इस के साथ ही यह भी एक कटु सत्य है कि कई कविता संग्रह पढ़ने पर उनके फीकेपन या निकृष्टता पर खीज सी भी होती है. इन पंक्तियों के लेखक भी पिछले कुछ महीनों से मुफ्त में मिले कुछ प्रभावहीन कविता संग्रह पढ़ने का अप्रिय अनुभव बटोरते रहे पर हेवेनली बेबी बुक्स, (कोची, केरल) से प्रकाशित सजीव सारथी का प्रथम संग्रह ‘एक पल की उम्र ले कर’ पढ़ने के बाद इस बात का सुखद अहसास अवश्य होता है कि इन तमाम कूड़ानुमा संग्रहों (जिनके कवि अधिकांशतः अपना ही पैसा फूंक कर संग्रह छपवाते हैं व घर में ही पुस्तकों का गोदाम बना लेते हैं) के बीच कोई कोई सार्थक प्रयास करता कवि भी मिल जाता है और काव्य-प्रेमी हृदय को एक सुखद सी अनुभूति भी होती है. सजीव सारथी के इस संग्रह के सरोकार सामाजिक भी हैं तो राष्ट्रीय भी, और वैश्विक भी तो कहीं कहीं वैयक्तिकता का पुट भी मिलता है. कवि स्वयं अभी एक उभरते हुए कवि है फिर भी बतौर एक बानगी के मैं इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कविता ‘एक और अंत’ (1) की कुछ काव्य पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ. इस कविता में पूरब और पश्चिम की अपनी अपनी त्रासदियों बल्कि उनकी घातकताओं का बहुत प्रभावशाली कंट्रास्ट प्रस्तुत कर के कवि ने अपने भीतर एक प्रखर विचारक विश्लेषक होने का सबूत प्रस्तुत किया है:
‘पूरब अपनी ही वर्जनाओं में जकड़ गया/ अपने ही संस्कारों से ऊब गया/ उसने आत्मा से मुंह मोड़ लिया/ वह जीवन के सत्यों को भूल गया/... पश्चिम अपनी संभावनाओं पर अकड़ गया/ अपनी कामयाबी पर फूल गया/ उसने मौत को चुनौती दे डाली/ वह वासनाओं में उलझ गया/ वह मुगालते में था कि दुनिया जीत ली पर खुद को जीतना भूल गया/... पूरब ने भ्रमित हो कर अपने ज्ञान को फूंक दिया/ और उसकी राख सूरज के मुंह पर मल दी/ आधा संसार धुंधला हो गया/ पश्चिम यह देख कर ठा-ठा कर हंसा/ अपने गुरूर में चूर हो कर उसने/ अपने विज्ञान का परमाणु/ सूरज के सर पर फोड़ दिया/... और अगले ही पल सारा संसार अंधा हो गया... (pp 44-46).

कवि मन से उभरती विषयों की विविधता या एक आल-राऊंडर होने की ललक तभी अच्छी लगती है जब उसकी कलम से अनुभव व सोच के विस्तार के स्पष्ट लक्षण मिलें. सजीव की कविताओं में विषयों का विस्तार है जो उनके भीतर निर्माणाधीन एक बड़े फलक के संकेत स्पष्ट रूप से देता है. उदाहरण के तौर पर पृ. 24-25 पर कविता ‘किसका शहर’ पढ़ी जा सकती है. कुछ पंक्तियाँ:
उस फुटपाथ पर/ सुनता था फर्राटे से दौड़ती/ तुम्हारी गाड़ियों का शोर/ आज भी गूंजता है जो मेरे कानों में/ फिर जब रहता था उस तंग सी बस्ती में/ जहाँ करीब से हो कर गुज़रता था/ वो गंदा नाला/ तो याद आती थी मुझे/ गाँव की वो बाढ़ में डूबी फसलें/ और पिता का वो उदास नाकाम चेहरा/ माँ की वो चिंता भरी आँखें...
स्पष्ट है कि कवि-मन के शब्द ठीक उसके भीतर की भाव भूमि से उन अनुभूतियों को ले कर कागज़ पर उतरते हैं जिन्हें कवि स्वयं हो या वह फुटपाथ पर सोने वाला मजदूर, सचमुच में जीता है.
कवि अपने ऑब्ज़र्वेशन को कहीं कहीं बहुत मार्मिक प्रतीकों में प्रकट कर पाठक के भीतर संवेदना का मार्मिक प्रवाह सा कर देता है:
‘स्कूल से लौटते बच्चे/ कंधों पर लादे/ ईसा का सलीब/ भारी भरकम बस्ते...’ (पृ. 33 हुजूम).
राष्टीय स्वर से ओत प्रोत कविता ‘आज़ादी’ (पृ. 73-74) एक अच्छी कविता है जो आज़ादी पर्यंत के मोहभंग को देख किसी भी कवि-मन की सुपरिचित सी लगती टुटन को पाठक मन तक ले जाती है:
मगर बेकार हैं/ चीखें उन औरतों की/ जो घरों में हैं, घरों के बाहर हैं/ झेलती बलात्कार हैं/ चकलों में, चौराहों में शोर है/... हैवान सड़कों पर उतर आए/ सिंहासनों पर विराज गए/ अवाम सो गई/ नपुंसक हो गई कौम/ हिंदुओं ने कहीं तोड़ डाली मस्जिदें/ तो मुसलमानों ने जला डाले मंदिर कहीं...
कविताएं ‘दीवारें’ (पृ. 18-19), ‘ठप्पा’ (पृ. 22-23), ‘ऐसी कोई कविता’ (पृ. 27-28), ‘विलुप्त होते किसान’ (पृ. 30-31), ‘मिलन’ (पृ. 56) आदि भी संग्रह की अच्छी कविताओं के कुछ उदाहरण हैं. कविता ‘एक ही छत के नीचे’ (पृ. 64-65) आधुनिकता और एक संवेदनशील दादा की पोते के प्रति संवेदना के बीच के कंट्रास्ट को उभारती बहुत मार्मिक कविता है. कवि ने चार गज़लें भी लिखी हैं जिन्हें गज़लें कहा नहीं है. गज़ल की एक पहचान यह है कि उसके सभी शेर एक दूसरे से स्वतंत्र अपने अलग अलग भाव प्रस्तुत करते हैं. इस दृष्टि से पृ. 78-81 की चार रचनाएँ गजलें हैं. पर इन गज़लों के शायर सजीव गज़ल के व्याकरण से सर्वथा अनभिज्ञ रह कर उनकी उपेक्षा करते हैं, इसलिए ये गज़लें नहीं हैं. शायर सजीव को इस बात का अहसास बखूबी आत्मसात करना पड़ेगा कि गज़ल लिखनी है तो गज़ल की तहज़ीब से भी बखूबी निभाना पड़ेगा और गज़ल की तहज़ीब का एक महत्वपूर्ण आयाम है उसकी बह्र, जिसकी आज के अनेकों युवा शायर कोई परवाह नहीं करते. इसके बावजूद इन रचनाओं की कुछ पंक्तियाँ सचमुच कवि के महत्वपूर्ण सरोकारों की ओर संकेत करती हैं:
कोई अल्लाह तो कोई राम रट कर कटा है
चौक पर रुसवा जी फिर कोई किताब है शायद (भूल-चूक पृ. 81).
तस्लीमा नसरीन व एम एफ हुसैन को समर्पित रचना ‘आग जंगल की’ (पृ. 80 ) की ये पंक्तियाँ:
फाड़ देते हैं सफहे जो नागवार गुज़रे
तहरीर के नुमाइंदे ऐसे मौजूद यहाँ चंद हैं.
सजीव के इस संग्रह में एक अन्य सुखद बात यह है कि जिन फीके व निकृष्ट कविता संग्रहों की चर्चा मैंने प्रारंभ में की, उनकी तरह कविताओं की संख्या की अकारण भरमार नहीं है. कहीं भी किसी भी कविता में कलम घिसाई या घसीटबाज़ी के संकेत नहीं हैं. कविता चाहे साधारण प्रभाव वाली हो या सशक्त, हर कविता तन्मयता व प्रतिबद्धता से लिखी गई है, यही इस कवि की भविष्य निधि है, यही उसके प्रति पाठकों की आशा.

समीक्षा – प्रेमचंद सहजवाला - वरिष्ठ कथासहित्यकार


Sunday, July 10, 2011

लगा कि जैसे ये कवितायें तो मै जी चुकी हूँ, बस पृष्ठों पर आज उभर आई है - सुनीता शानू

सजीव सारथी का काव्य-संग्रह “एक पल की उम्र लेकर” के बारे में कुछ कहने से पहले मै कवि के बारे में ही कुछ कहना चाहूँगी। सजीव को जब से जाना है, मैने यही महसूस किया है कि वे एक संवेदनशील, उर्जावान, नेक व्यक्तित्व के इंसान हैं। मैने हमेशा उनकी आँखों को कुछ खोजता हुआ ही पाया है। मै समझ नही पाती थी कि वे खुद को हम सबके बीच कैसा महसूस करते थे। किन्तु महसूस करती थी, उनके मन में जो दूसरों के प्रति सम्मान था, जो कभी किसी भी बात पर कम नही होता था। किसी भी गलत बात पर मैने उन्हे असहज होते फ़िर कुछ पल में संयत होते हुए भी देखा है।

अब बात आती है उनकी पुस्तक “एक पल की उम्र लेकर” तो मुझे लगता है, वर्तमान परिवेश की पीड़ा, तड़प, व्याकुलता, अकुलाहट, आक्रोश को उन्होने अपनी कविताओं में बखूबी निभाया है। कितनी पीड़ा, कितना आक्रोश है उनकी इन पंक्तियों में कि... कैसे यकीं दिलाओगे उसे कि/ महफूज है वो/ खबरों की काली सुर्खियाँ/ रोज पढ़ती है वो।
यह कहना कतई गलत नही होगा कि सजीव ने ज़िंदगी की वास्तविकताओं से अपने साक्षात्कार को पूर्ण दायित्व-बोध के साथ उकेरते हुए ईमानदारी के साथ अपनी रचनाधर्मिता का निर्वाह किया है। उनकी यह कविता सचमुच बार-बार पढ़ने का दिल करता है... काश/ मै ऎसी कोई कविता लिख पाता/ कि पढ़ने वाला/ देख पाता अपना अक्स उसमे/ और टूटे ख्वाबों की किरचों को/ फ़िर से जोड़ पाता।

निम्न पंक्तियाँ बताती है कि हर छोटी से छोटी बात को भी कवि ने अपनी कविताओं में जीवन्तता प्रदान की है...कवि अपनी एक कविता में कहता है... वापसी में हम खेत से होकर जाते थे/ जहाँ पानी भरा रहता था/ कीचड़ से सने पाँव लेकर/ कच्ची पगडंडियों से गुजरते थे/ उन कदमों के निशाँ/ अभी तक मिटे नही हैं।

कवि की संघर्ष करने की शक्ति उसमें जीजिविषा और जीवट उत्पन्न करती है। ढुलमुल ज़िंदगी और मानवीय व्यक्तित्व को खंडित करने वाली शक्तियों से कवि आहत अवश्य होता है, किंतु निराश नही है। मन की आँखों में सपने संजोये, अपने अस्तित्व के प्रति सजग कवि कहता है कि... डूबना तो एक दिन किनारों को भी है/ फ़िर क्यों, ना खुदा को खुदा कहें/ क्यों सहारों को ढूँढते रहें/ आओ वक्त के पंखों को परवाज दें/ एक नयी उड़ान दें/ अनजान दिशाओं की ओर।

आप कहेंगे कि आज के युग में सहज, सरल, कौन है? परन्तु सब कुछ कर जाने का जज्बा दिल में होते हुए भी कवि स्वभाव से सरल है, और कितनी सहजता से कवि कहता है... मुझको था भरम /कि है मुझी से सब रोशनाँ/ मै अगर जो बुझ गया तो/ फ़िर कहाँ ये बिजलियाँ/... एक नासमझ इतरा रहा था/ एक पल की उम्र लेकर...।

मुझे नही लगता कि हर कविता को समझाना अनिवार्य है, क्योंकि यदि सम्पूर्ण काव्य-संग्रह की एक-एक कविता ध्यान से पढी जाये तो पाठक स्वय को उन कविताओं का लेखक समझ बैठेगा। मुझे भी एक पल को लगा कि जैसे ये कवितायें तो मै जी चुकी हूँ, बस पृष्ठों पर आज उभर आई है। मेरी शुभकामनाएं है सजीव तुम्हारी कलम हमेशा ऎसे ही चलती रहे.... और गीत,गज़ल,कविताओं के पुष्प वाटिका में सदैव खिलते रहें.।

एक पल की जिंदगी से ही... सूरज के रथ पर बैठकर/ जारी रखना मगर/ तुम अपना सफ़र।

सुनीता शानू
कवियित्री एवं रेडियो उद्घोषिका

Sunday, July 3, 2011

Ek Pal Kii Umr Lekar is Now on Flipkart

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Ek Pal Kii Umr lekar @ Flipkart

हर एक बात अपनी बात-सी लगती है

मैं आज तक फिल्मी गीतों की समीक्षा करता आया हूँ, लेकिन पहली मर्तबा किसी कविता-संग्रह की समीक्षा करने का मौका हासिल हुआ है। यह मौका दो कारणों से मेरे दिल के करीब है.. एक तो इसलिए कि ये सारी कविताएँ नए दौर की कविताएं है, जो आज के हालात का बखूबी चित्रण करती है और दूजा ये कि इन कविताओं के रचयिता मेरे बड़े हीं प्यारे कवि-मित्र हैं। सजीव सारथी जी का नाम अंतर्जाल पर हिन्दी भाषा के प्रेमियों के लिए नया नहीं है.. बस इस बार नया यह हुआ है कि सजीव जी अंतर्जाल से उतरकर पन्नों पर आ गए हैं। "एक पल की उम्र लेकर" इनका पहला कविता-संग्रह है। मैं इनके कविता-संग्रह की समीक्षा करूँ, इससे पहले पाठकों को यह यकीन दिलाना चाहता हूँ कि मेरी समीक्षा पर इनकी मित्रता का कॊई कुप्रभाव न होगा :) .. मेरी समीक्षा तटस्थ हीं रहेगी..

सजीव जी की कविताओं की सबसे बड़ी खासियत ये है कि इनकी लिखी हर एक बात अपनी बात-सी लगती है,
हर खुशी अपनी हीं किसी खुशी की याद दिलाती है, हर ग़म अपने हीं बीते हुए किसी ग़म का बोध कराता है। ये हर एक अनुभव को अपने अनुभव से पकड़ते हैं। ये जिस आसानी से हँसी लुटाते हैं, उतनी हीं आसानी से आँसुओं की भी बौछार कर डालते हैं। ११० पन्नों के इस कविता-संग्रह में हर तरह के भाव हैं। इनके यहाँ कथ्य का दुहराव नहीं है। ये उन कवियों की तरह नहीं हैं, जिन्हें अगर एक बार ज़िंदगी में बुरे लम्हे नसीब हुए तो उनका लेखन हीं निराशावाद की तरह मुड़ जाता है.. फिर हर एक पंक्ति में उसी दु:ख के दर्शन होते हैं। सजीव जी दु:ख और सुख को तराजू के दोनों पलड़ों पर बराबर का स्थान देते हैं, इसलिए इनकी कविताओं को पढते वक़्त पाठक कोई एक मनोभाव बरकरार नहीं रख सकता। एक पाठक को महज कुछ हीं कविताओं में जीवन के सारे उतार-चढाव दिख जाएँगे।

"साहिल की रेत" कविता में जब कवि अपने पुराने सुनहरे दिनों को याद करता है तो अनायास हीं उसे इस बात का बोध हो जाता है कि जो भी लम्हे हमने गंवा दिए वही काफी थे, जीने के लिए। उन्हें ठुकराकर भी प्यास मिटी तो नहीं।

उन नन्हीं
पगडंडियों से चलकर हम
चौड़ी सड़कों पर आ गए
हवाओं से भी तेज़
हवाओं से भी परे
भागते हीं रहे
फिर भी
प्यासे हीं रहे...


किसी पुराने प्यार, किसी पुरानी पहचान को भुलाना आसान नहीं होता। वह इंसान भले हीं हमारी ज़िंदगी से चला जाए, लेकिन उसकी यादें परछाई बनकर हमारे आस-पास मौजूद रहती है। कुछ ऐसे हीं ख़्यालात "बहुत देर तक" कविता में उभरकर सामने आए हैं:

बहुत देर तक
उसके जाने के बाद भी
ओढे रहा मैं उसकी परछाई को..

बड़े शहरों में छोटे शहरों या गाँवों से मजूदरों का पलायन कोई नई बात नहीं है। यह बात भी किसी से छुपी नहीं कि इन लोगों के साथ कैसा सलूक किया जाता है। ये भले हीं उनके समाज में घुल जाना चाहें, लेकिन बड़े लोगों का समाज इन्हें गैर या प्रवासी हीं बने रहने देना चाहता है। ऐसे प्रवासियों का दर्द और खुद पर गुमान सजीव जी की इस एक पंक्ति से हीं स्पष्ट हो जाता है। कविता है "किसका शहर":

उन सर्द रातों में
जब सो रहे थे तुम
मैं जाग कर बिछा रहा था सड़क..


गाँवों से मजदूरों और किसानों का पलायन केवल केरल तक सीमित नहीं है। यह अलग बात है कि सजीव जी ने केरल के गाँवों की स्थिति अपनी आँखों से देखी है। इसलिए इन्होंने "विलुप्त होते किसान" में हाशिये पर पड़ी इन प्रजातियों पर गहरी टिप्पणी कर डाली है:

सभ्यता के विकास में अक्सर
विलुप्त हो जाती हैं
हाशिये पर पड़ी प्रजातियाँ..


ज़िंदगी से छोटे-छोटे लम्हे बटोर लाना सजीव जी की आदत-सी है शायद। तभी तो इन्होंने किसी की उम्र में "नौ महीने" जोड़ दिए तब हमें मालूम हुआ कि उम्र कहीं छोटी पड़ रही थी। ये नौ महीने जितना एक लडके के लिए मायन रखते हैं, उतना हीं एक लड़की के लिए.. या फिर कहिए कि लड़की के लिए ज्यादा... क्योंकि लड़कियों के लिए वे नौ महीने गुजारने ज्यादा मुश्किल होते हैं... मौत कब गले पड़ जाए कोई नहीं जानता... इस कविता के लिए मैं सजीव जी को विशेष दाद दूँगा।

शिनाख्त उनकी होती है, जिन्हे जीने का हक़ होता है और जो ज़िंदगी को अपने बूते पर जीता है। वह तो बे-शिनाख्त हीं मारा जाएगा, जो रोड़े की तरह पाँव के ठोकर खाता हुआ इधर-उधर फेंका जा रहा हो। दिल्ली-मुम्बई जैसे शहरों में बिहार के पिछड़े गाँव से आने वाले किसी मजदूर (हाँ, वही पलायन की दु:ख भरी दास्तां) की किसने जेब मारी, किसने किडनी और किसने ज़िंदगी.. इसकी कौन खबर लेता है। ये मजदूर और इनके परिवार वाले तो यही मानते हैं कि स्वर्ग के दर्शन हो रहे हैं, लेकिन जो होता है उसका जीता-जागता ब्योरा सजीव जी की "बे-शिनाख्त" कविता में है। सच हीं लिखा है आपने:

और किसी को कानों-कान
खबर भी नहीं लगती..


प्यार... बड़ा हीं प्यारा अनुभव है। इसमें जीत क्या और हार क्या... प्यार को अगर शतरंज की बाजी की तरह समझा जाए तो सजीव जी की "शह और मात" कविता हर चाल के साथ फिट बैठती है और फिर... इन पंक्तियों के क्या कहने:

मैंने खुद को विजेता-सा पाया
जब तुमने मुस्कुराते होठों से कहा -
यह शह है और ये मात।


दंगों में बस इंसान हीं ज़ाया नहीं होते.. इंसान के द्वारा गढे गए शब्द भी अपना अर्थ खो देते हैं। दोस्ती, प्यार, विश्वास, इंसानियत.. ऐसे न जाने कितने शब्दों की मौत हो आती है। "शब्द" कविता में कवि इन्हीं आवारा शब्दों की शिकायत करते हुए कहता है कि:

शब्द
जो एक अमर कविता बन जाना चाहते थे
कुछ दिन और ज़िंदा रह जाते-
अगर जो खूँटों से बँधे रहते।


कश्मीर.. यह क्या था, इसे क्या होना था.. लेकिन यह क्या होकर रह गया है.. इस सुलगते शहर में अब दर्द भी सुलगते हैं। आँखों में रोशनी की जगह गोलियों के सुराख ... आह! इस दर्द को महसुस करना हो तो "सुलगता दर्द-कश्मीर" एक बार ज़रूर पढ लें।

कहा था ना कि दर्द और प्यार.. खुशी और ग़म.. हर तरह के अनुभव सजीव जी के इस संग्रह में मौजूद है। तो लीजिए.. अगली हीं कविता में "हृदय" की कोमलता से रूबरू हो आईये। क्या खूब कहा है कवि ने:

क्या करूँ, मुश्किल है लेकिन
खुद से हीं बचकर गुजरना।


"एक पल की उम्र लेकर" कविता-संग्रह में न सिर्फ़ उन्मुक्त छंद हैं, बल्कि कई सारी ग़ज़लें भी हैं। उन्हीं में से एक है "रूठे-रूठे से हबीब"। इस ग़ज़ल के एक शेर में कवि इस बात का खुलासा कर रहा है कि आजकल प्रेम परवान क्यों नहीं चढता?

कहाँ रहा अब ये प्रेम का ताजमहल,
ईंट-ईंट में अहम के किले हैं कुछ..


दूसरी ग़ज़ल है "भूल-चूक"। दंगे-फ़सादों में जब भी किसी इंसान की जान ली जाती है तो उस समय एक इंसान नहीं एक धर्म निशाने पर होता है और निशाना भी एक धर्म की ओर से हीं लगाया जाता है। उस वक़्त कोई गीता की शपथ लेता है तो कोई क़ुरआन के कलमें पढता है। इसी लिए कवि ने कहा है कि:

कोई अल्लाह तो कोई राम रट कर कटा है,
चौक पर रूसवा हुई है फिर कोई किताब शायद..


मंज़िल उन्हीं को हासिल हुई है, जिन्होंने रास्तों की खोज़ की है। कुएँ के मेढक की तरह सिमटकर बैठे रहने से कुछ भी हासिल नहीं होता। कभी न कभी अनजान दिशाओं की ओर बढना हीं होता है। कभी न कभी नाखुदा से ज्यादा खुद पर भरोसा करना होता है। सजीव जी अपनी इन बातों को रखने में पूरी तरह से सफल हुए हैं:

आओ वक़्त के पंखों को परवाज़ दें,
एक नयी उड़ान दें
अनजान दिशाओं की ओर।


सदियों से इंसान के सामने सबसे बड़ा यक्ष-प्रश्न यही रहा है कि वह आया कहाँ से है। आज तक इसका उत्तर कोई जान नहीं पाया है। फिर भी वक़्त-बेवक़्त हर कहीं यह प्रश्न किसी न किसी रूप में सामने आता हीं रहता है। "कफ़स" कविता में यह प्रश्न कुछ इस तरह उभर कर आया है:

आसमान पे उड़ने वाले परिंदे की
परवाज़ जो देखी तो सोचा कि-
मेरी रूह पर
ये जिस्म का कफ़स क्यों है?


एक कवि किस हद तक सोच सकता है यह जानना हो तो सजीव जी की "सूखा" कविता पढें जहाँ ये कहते हैं कि:

मेरे भीतर-
एक सूखा आकाश है।


"सिगरेट" न सिर्फ़ जिगर को खोखला करता है, बल्कि ज़िंदगी जीने के जज्बे को भी मार डालता है। इंसान अपने ग़म मिटाने के लिए सिगरेट की शरण ले तो लेता है, लेकिन जब उसे अपने अंतिम दिन सामने नज़र आते हैं तब जाकर शायद उसे इस बात का पता चलता है कि:

मगर जब देखता हूँ अगले हीं पल
ऐश-ट्रे से उठते धुवें को
तो सोचता हूँ,
ज़िंदगी -
इतनी बुरी भी नहीं है शायद।


इस संग्रह में और भी कई सारी अच्छी कविताएँ, ग़ज़लें एवं क्षणिकाएँ हैं, लेकिन सब का ज़िक्र यहाँ मुमकिन नहीं है। इसलिए मैंने उनमें से अपनी पसंद की पंक्तियाँ चुनकर उनकी समीक्षा की है। हो सकता है कि पाठक को या फिर दूसरे किसी समीक्षक को कोई और पंक्तियाँ ज्यादा पसंद हों। अपनी-अपनी राय है.. अपना-अपना मंतव्य है। अगर पूरे संग्रह की एक बार बात की जाए तो हर कविता का अंत बेहतरीन है। इस मामले में मैं सजीव जी का बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ कि वे जानते हैं कि कौन-से शब्द और कौन-से वाक्य कहाँ रखे जाने हैं।

चूँकि शुरूआत में मैंने कहा था कि मेरी समीक्षा तटस्थ होगी, तो मैंने संग्रह में दो-चार ऐसी भी पंक्तियाँ ढूँढ निकाली हैं, जहाँ या तो मैं थोड़ा दिग्भ्रमित हुआ या फिर मुझे लगा कि शिल्प थोड़ा ठीक किया जा सकता था।

उदाहरण के लिए "पराजित हूँ मैं" कविता की इन्हीं पंक्तियों को लें:

मेरा रथ हीं तो दलदल में
फँसाया था तुमने
मेरा वध हीं तो छल से
कराया था तुमने।


मेरे हिसाब से अगर "हीं" को "रथ" और "वध" के पहले रखते तो अर्थ ज्यादा साफ़ होता। तब यह अर्थ निकलता कि "मेरा" हीं रथ ना कि "किसी" और का। "हीं" को बाद में रखने से वाक्य का जोर "रथ" और "वध" पर चला गया है, जो कि "मेरा’ पर होना चाहिए था।

अगली कविता है "संवेदनाओं का बाँध"। इस कविता के अंतिम छंद को मैं सही से समझ नहीं पा रहा हूँ।

मन की हर अभिव्यक्ति को
शब्दों में ढल जाने दो
कोरे हैं ये रूप इन्हें
कोरे हीं रह जाने दो।


यहाँ शुरू की दो पंक्तियों में कवि यह कहना चाहता है कि मेरी हर अभिव्यक्ति को आवाज़ मिले, शब्द मिले। लेकिन अंतिम दो पंक्तियों में "कोरे" को "कोरे" रह जाने दो.. कहकर "अभिव्यक्ति" को "अभिव्यक्ति" हीं रहने देने की बात हो रही है या फिर कुछ और? मैं चाहूँगा कि सजीव जी मेरी इस शंका का समाधान करें।

"आलोचना" वाली श्रंखला की अंतिम कविता है "आज़ादी"। इस कविता की एक पंक्ति में कवि ने "कारी" शब्द का इस्तेमाल किया है। मेरे हिसाब से कारी "काली" का हीं देशज रूप है। यह मानें तो पंक्ति कुछ यूँ बनती है:

उफ़्फ़ ये अँधेरा कितना काली है..

अब यहाँ "लिंग-दोष" आ गया है, क्योंकि अंधेरा पुल्लिंग है। अँधेरा की जगह अगर तीरगी को रखें तो यह दोष जाता रहेगा..

बड़ी हीं मेहनत-मशक्कत के बाद मैं इस कविता-संग्रह में बस ये तीन कमियाँ (शायद) निकाल पाया हूँ। बाकी तो आपने ऊपर पढ हीं लिया है।

मैं अपनी इस समीक्षा को विराम दूँ, उससे पहले सजीव सारथी जी को इस कविता-संग्रह के लिए बहुत-बहुत बधाईयाँ देना चाहूँगा और दुआ करूँगा कि उनके ऐसे और भी कई सारे संग्रह निकलें।

एक बात और... इस पुस्तक का जब भी दूसरा संस्करण निकले या फिर आपका कोई नया पुस्तक आए, तो इस बात का ज़रूर ध्यान रखें कि उर्दू के शब्द उर्दू जैसे हीं दिखें यानि कि नुख़्ते को नज़र-अंदाज़ न किया जाए।

विश्व दीपक
कवि, गीतकार और सोफ्टवेयर इंजीनियर

Tuesday, June 28, 2011

खुशबुओं की एक पूरी दुनिया


शनिवार २५ जून की वो शाम बेहद ख़ास थी, जहाँ ब्रजेन्द्र त्रिपाठी, दिनेश कुमार शुक्ल और शिवमंगल सिद्धान्तकर जैसे साहित्य जगत के बड़े हस्ताक्षर मौजूद हों, और वहाँ अगर युवा कवि सजीव सारथी की पहली काव्य पुस्तक "एक पल की उम्र लेकर" की चर्चा होनी हो तो वह शाम ख़ास अपने आप हो जाती है. दिल्ली के मशहूर सिरी फोर्ट सभागार के पास बसे एकेडमी ऑफ़ फाईन आर्ट एंड लिटरेचर में आयोजन था "डायलोग" मंच का. जो हर माह के अंतिम शनिवार को रोशन होती है कविता की नयी बयार लेकर. हिंदी उर्दू और पंजाबी साहित्कारों की ये गोष्ठी दक्षिण दिल्ली में खासी लोकप्रिय है. इस काव्य गोष्ठी की सबसे बड़ी खासियत ये होती है की यहाँ सब बेहद अनौपचारिक होता है बिलकुल जैसे घर की बात हो, सभी नए और वरिष्ठ कवि एक साथ एक प्लेटफोर्म को शेयर करते हैं और कविता पर खुल कर चर्चा और बहस होती है. 

इस महफ़िल को अपने संचालन से चार चाँद लगते हैं वरिष्ठ कवि और वक्ता मिथिलेश श्रीवास्तव. २५ जून को भी ठीक शाम ५ बजे कार्यक्रम विधिवत रूप से आरंभ हुआ. कुछ श्रोता आ चुके थे, कुछ आने बाकी थे. हाल ही में हम सब से बिछड़े महान चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन को अश्रुपूर्ण ह्रदय से याद किया गया, साथ ही एक कवि साथी रंजीत वर्मा की दिवंगत माता जी के लिए कुछ पलों का शोक रखा गया. इसके पश्चात सजीव सारथी की पुस्तक "एक पल की उम्र लेकर" का दक्षिण दिल्ली विमोचन हुआ ब्रिजेन्द्र जी और दिनेश जी के शुभ हाथों से. इसके बाद मिथिलेश जी ने कमान संभाली और सजीव के काव्य संग्रह पर एक दिलचस्प सी टिपण्णी की. उन्होंने कहा कि सजीव सरल हैं और संकोची भी मगर एक अच्छे इंसान और प्रतिभाशाली कवि हैं, उनकी कवितायें नोस्टेलेजिक होते हुए भी मानुषी संवेदनाओं को अनेक स्तरों पर कुरेदती हुई बहती हैं, इसमें विस्थापन का दर्द भी है और पकृति विरोधी विकास के प्रति आक्रोश भी, सुनिए पूरी चर्चा इस यू ट्यूब वीडियो में...





ब्रिजेन्द्र जी ने कहा कि आम तौर पर दक्षिण के लेखक जब हिंदी का इस्तेमाल करते हैं तो क्लिष्ट संस्कृत शब्दों में अपनी बात कहते हैं पर सजीव की कविताओं में हिंदी और उर्दू के सरल शब्द बहुत स्वाभाविक रूप से आते हैं, उनकी कविताओं को पढकर निश्चित ही कहा जा सकता है कि उनमें आपार संभवानाएं मौजूद हैं जो आगे चलकर और भी मुखरित होंगीं. सुनिए पूरी बात -



सजीव ने कुछ कविताओं का वाचन भी किया. उनके वाचन में बेशक अनुभवी कवियों जैसे भाषा प्रवहता न हो मगर एक सच्चाई अवश्य झलकती है. अच्छी कवितायें लिखने के साथ साथ उन्हें मंच पर बेहतर तरीके से प्रस्तुत करने का भी हुनर उन्हें अभी सीखना पड़ेगा. खैर सुनिए उनकी जुबानी उन्हीं की कवितायें.




यहाँ कुछ कवि ऐसे भी थे जो विशेषकर इस आयोजन में शामिल होने के लिए आये सजीव के कारण. उनके लिए सजीव कवि कम और एक मित्र अधिक हैं. सुनीता शानू जो सजीव को अपना छोटा भाई मानती है तमाम दिक्कतों को पार कर दिल्ली के दुसरे सिरे से यहाँ पहुंची तो दीप जगदीप अपने जीवन संगनी को साथ लेकर आये कार्यालय से आधे दिन की छुट्टी लेकर, मगर १०० किलोमीटर की दूरी तय कर गजरौला से ४ घंटे का सफ़र कर दिल्ली पहुंचे युवा कवि अखिलेश श्रीवास्तव का तो कहना ही क्या, देखिये कविता वाचन से पहले उन्होंने अपने साथी कवि सजीव की किन शब्दों में प्रशंसा की. 

अखिलेश ने इसके बाद जो काव्य धारा बहाई वो लाजवाब थी, मगर उसका उल्लेख फिर कभी. उनके आलावा स्वप्निल तिवारी, रजनी अनुरागी, रेनू हुसैन, सुनीता शानू, अजय नावरिया और तेजेंद्र लूथरा सरीखे कवियों ने अपने शाब्दिक जौहर का नमूना खुले दिल से पेश किया. हम आपको बता दें की वरिष्ठ साहित्यकार शिवमंगल सिद्धान्तकर जी को कुछ जरूरी कारणों के चलते बीच कार्यक्रम में जाना पड़ा, पर उन्होंने भी सभी उपस्तिथ कवियों विशेषकर सजीव को अपनी शुभकानाएं अवश्य दी. फिलहाल हम आपको छोड़ते हैं कार्यक्रम के अंतिम संबोधन के साथ जहाँ ब्रिजेन्द्र जी और दिनेश जी ने इस यादगार शाम को कुछ इस तरह परिभाषित किया. 


मिथलेश जी, सजीव और उनके युग्मि मित्रों के साथ

कार्यक्रम की पूरी रिपोर्ट यहाँ पढ़ें
     

दिल्ली पोयट्री में "एक पल की उम्र लेकर"

२४ जून की शाम सजीव सारथी को दिल्ली के अमेरिकन सेंटर, में दिल्ली पोयट्री के कार्यक्रम में बतौर फीचर्ड कवि आमंत्रित किया गया. दिल्ली पोयट्री, दिल्ली के सम्मानित कविता समूह में से एक है, जो दिल्ली के सभी स्थानों पर माह में ३० दिन कविता की महफ़िल रोशन करने का एक बड़ा सपना लेकर पिछले ४ सालों से काम कर रही है. इसके संचालक हैं अमिता दहिया "बादशाह" जो खुद भी एक जाने माने कवि हैं.



कार्यक्रम में हिंदी और अंग्रेजी के कई युवा और वरिष्ठ कवियों ने कविता पाठ किया. सजीव की कवितायें "दीवारें", "ऐसी कोई कविता", और "विलुप्त होते किसान" बेहद पसंद किये गए. कार्यक्रम का कुशल संचालन खुद अमित जी ने अपने चिर परिचित अंदाज़ में किया. दिल्ली पोयट्री ने सजीव की पुस्तक "एक पल की उम्र लेकर" को बिक्री के लिए भी अपने काउंटर पर जगह दी.

गौर तलब है कि सजीव ने अपना पहला मंचीय कविता पाठ दिल्ली पोयट्री के ही एक कार्यक्रम में किया था करीब चार साल पहले. और आज यहाँ अपनी पुस्तक के साथ उपस्तिथ होना सजीव के लिए एक वृत्त का घूमकर वापस अपनी जगह पर आने जैसा है. दिल्ली पोयट्री के चुने हुए १०० कवियों में से भी सजीव एक थे. हम उम्मीद करेंगें कि दिल्ली पोयट्री अपने शुभ उद्देश्यों में और कामियाब हो ताकि हमें सजीव जैसे और भी प्रतिभाशाली कवि मिल सकें.  

Tuesday, June 21, 2011

Rishi S Commented

A wonderful collection of poems which reflect Sajeev's care for relationships, passion for the country and concern for society.I am privileged to have had the opportunity to tune some of these poems.

Rishi S,
Composer, Hyderabad