Saturday, July 16, 2011

A LIFETIME IN ONE MOMENT


BOOK REVIEW ‘EK PAL KI UMR LEKAR’ BY SAJEEV SARATHIE

We have a moment and a lifetime. A lifetime is a collection of moments, we all know and we all live life like that. Greatness comes to those who live every moment as a lifetime. These are the kind of thoughts brought to our mind by the title ‘Ek Pal ki Umr Lekar’ (Having a moment’s lifetime). Sajeev Sarathie in his maiden collection of poetry in Hindi entitled ‘Ek Pal ki Umr Lekar’ has tried to sum up the whole life in few words. Moreover, doing so in a language other than one’s mother tongue adds to the stature of success. Born in a small town of Kerela, Sajeev Sarathie went on to carve out a niche for himself in the literary world of our national language, Hindi.
He writes in a rhythmical flow with such ease that surpasses some of the native Hindi poets. His anthology begins with a sense of nostalgia in the poem ‘Sooraj’, flows like a river:
“Sadiyon se beh raha hoon
Kisi nadi ki tarah”
Zindagi mili hai kabhi
Kisi ghat par
To kisi kinare
Kabhi ruka hoon pal-do-pal”
(from ‘Kisi Nadi ki Tarah’)

“For centuries
I’ve been flowing like a river
Life met me sometimes
In shallow waters
Or on the banks
Have I paused for a while.”
The themes of his poetry consist of varied shades that we experience from birth till death. An aura that pervades a majority of his poems is that of nostalgia longing. Very beautifully the poet tries to contain in his words the bubbling childhood in his poem ‘Ek Yaad’. When he talks of the journey of child going to his village school and coming back home.
“Un kadmon ke nishaan
Abhi mite nahin hain.”
(from ‘Ek Yaad’)
(“Those footprints
Not wiped out yet.”)
A noticeable feature of his poetry is the use of the technique of alliteration. Quite a few poems in his anthology exhibit the trait of having a number of lines beginning with the same word.

“Aisa sparsh dedo mujhko
Jis mein surya si ushma ho
Jis mein chaand si sheetalta
Jis mein dhayan si abha ho”
(‘Sparsh’)
“Give me such a touch
That has the light of Sun
That has the soothness of moon
That has an aura of meditation.”

In all this collection of poems and ghazals is unique in the fact that a Keralite has woven a poetic yarn so beautifully in Hindi. Going through the poems one can feel the emotions and feelings of the poet looking at you from behind a line or glancing at you through a word.


AMRITBIR KAUR
Poet

एक संभावनाशील कवि से साक्षात्कार

(एक पल की उम्र लेकर – कवि सजीव सारथी. पृष्ठ संख्या : 110. Rs. 100, $ 2,
प्रकाशक : हेवेनली बेबी बुक्स, कोची केरल).
खरीदने के लिए जाएँ http://www.flipkart.com/author/sajeev-sarathie
प्रायः कविता संग्रहों को ले कर इस प्रकार की टिप्पिणियाँ सुनने को सहज ही मिल जाती हैं कि कविता अब एक इंडस्ट्री सी हो गई है, देश की हर गली नुक्कड़ पर कोई न कोई कवि ज़रूर मिल जाता है. शायद यह स्थिति कई वर्षों से है. पर इस के साथ ही यह भी एक कटु सत्य है कि कई कविता संग्रह पढ़ने पर उनके फीकेपन या निकृष्टता पर खीज सी भी होती है. इन पंक्तियों के लेखक भी पिछले कुछ महीनों से मुफ्त में मिले कुछ प्रभावहीन कविता संग्रह पढ़ने का अप्रिय अनुभव बटोरते रहे पर हेवेनली बेबी बुक्स, (कोची, केरल) से प्रकाशित सजीव सारथी का प्रथम संग्रह ‘एक पल की उम्र ले कर’ पढ़ने के बाद इस बात का सुखद अहसास अवश्य होता है कि इन तमाम कूड़ानुमा संग्रहों (जिनके कवि अधिकांशतः अपना ही पैसा फूंक कर संग्रह छपवाते हैं व घर में ही पुस्तकों का गोदाम बना लेते हैं) के बीच कोई कोई सार्थक प्रयास करता कवि भी मिल जाता है और काव्य-प्रेमी हृदय को एक सुखद सी अनुभूति भी होती है. सजीव सारथी के इस संग्रह के सरोकार सामाजिक भी हैं तो राष्ट्रीय भी, और वैश्विक भी तो कहीं कहीं वैयक्तिकता का पुट भी मिलता है. कवि स्वयं अभी एक उभरते हुए कवि है फिर भी बतौर एक बानगी के मैं इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कविता ‘एक और अंत’ (1) की कुछ काव्य पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ. इस कविता में पूरब और पश्चिम की अपनी अपनी त्रासदियों बल्कि उनकी घातकताओं का बहुत प्रभावशाली कंट्रास्ट प्रस्तुत कर के कवि ने अपने भीतर एक प्रखर विचारक विश्लेषक होने का सबूत प्रस्तुत किया है:
‘पूरब अपनी ही वर्जनाओं में जकड़ गया/ अपने ही संस्कारों से ऊब गया/ उसने आत्मा से मुंह मोड़ लिया/ वह जीवन के सत्यों को भूल गया/... पश्चिम अपनी संभावनाओं पर अकड़ गया/ अपनी कामयाबी पर फूल गया/ उसने मौत को चुनौती दे डाली/ वह वासनाओं में उलझ गया/ वह मुगालते में था कि दुनिया जीत ली पर खुद को जीतना भूल गया/... पूरब ने भ्रमित हो कर अपने ज्ञान को फूंक दिया/ और उसकी राख सूरज के मुंह पर मल दी/ आधा संसार धुंधला हो गया/ पश्चिम यह देख कर ठा-ठा कर हंसा/ अपने गुरूर में चूर हो कर उसने/ अपने विज्ञान का परमाणु/ सूरज के सर पर फोड़ दिया/... और अगले ही पल सारा संसार अंधा हो गया... (pp 44-46).

कवि मन से उभरती विषयों की विविधता या एक आल-राऊंडर होने की ललक तभी अच्छी लगती है जब उसकी कलम से अनुभव व सोच के विस्तार के स्पष्ट लक्षण मिलें. सजीव की कविताओं में विषयों का विस्तार है जो उनके भीतर निर्माणाधीन एक बड़े फलक के संकेत स्पष्ट रूप से देता है. उदाहरण के तौर पर पृ. 24-25 पर कविता ‘किसका शहर’ पढ़ी जा सकती है. कुछ पंक्तियाँ:
उस फुटपाथ पर/ सुनता था फर्राटे से दौड़ती/ तुम्हारी गाड़ियों का शोर/ आज भी गूंजता है जो मेरे कानों में/ फिर जब रहता था उस तंग सी बस्ती में/ जहाँ करीब से हो कर गुज़रता था/ वो गंदा नाला/ तो याद आती थी मुझे/ गाँव की वो बाढ़ में डूबी फसलें/ और पिता का वो उदास नाकाम चेहरा/ माँ की वो चिंता भरी आँखें...
स्पष्ट है कि कवि-मन के शब्द ठीक उसके भीतर की भाव भूमि से उन अनुभूतियों को ले कर कागज़ पर उतरते हैं जिन्हें कवि स्वयं हो या वह फुटपाथ पर सोने वाला मजदूर, सचमुच में जीता है.
कवि अपने ऑब्ज़र्वेशन को कहीं कहीं बहुत मार्मिक प्रतीकों में प्रकट कर पाठक के भीतर संवेदना का मार्मिक प्रवाह सा कर देता है:
‘स्कूल से लौटते बच्चे/ कंधों पर लादे/ ईसा का सलीब/ भारी भरकम बस्ते...’ (पृ. 33 हुजूम).
राष्टीय स्वर से ओत प्रोत कविता ‘आज़ादी’ (पृ. 73-74) एक अच्छी कविता है जो आज़ादी पर्यंत के मोहभंग को देख किसी भी कवि-मन की सुपरिचित सी लगती टुटन को पाठक मन तक ले जाती है:
मगर बेकार हैं/ चीखें उन औरतों की/ जो घरों में हैं, घरों के बाहर हैं/ झेलती बलात्कार हैं/ चकलों में, चौराहों में शोर है/... हैवान सड़कों पर उतर आए/ सिंहासनों पर विराज गए/ अवाम सो गई/ नपुंसक हो गई कौम/ हिंदुओं ने कहीं तोड़ डाली मस्जिदें/ तो मुसलमानों ने जला डाले मंदिर कहीं...
कविताएं ‘दीवारें’ (पृ. 18-19), ‘ठप्पा’ (पृ. 22-23), ‘ऐसी कोई कविता’ (पृ. 27-28), ‘विलुप्त होते किसान’ (पृ. 30-31), ‘मिलन’ (पृ. 56) आदि भी संग्रह की अच्छी कविताओं के कुछ उदाहरण हैं. कविता ‘एक ही छत के नीचे’ (पृ. 64-65) आधुनिकता और एक संवेदनशील दादा की पोते के प्रति संवेदना के बीच के कंट्रास्ट को उभारती बहुत मार्मिक कविता है. कवि ने चार गज़लें भी लिखी हैं जिन्हें गज़लें कहा नहीं है. गज़ल की एक पहचान यह है कि उसके सभी शेर एक दूसरे से स्वतंत्र अपने अलग अलग भाव प्रस्तुत करते हैं. इस दृष्टि से पृ. 78-81 की चार रचनाएँ गजलें हैं. पर इन गज़लों के शायर सजीव गज़ल के व्याकरण से सर्वथा अनभिज्ञ रह कर उनकी उपेक्षा करते हैं, इसलिए ये गज़लें नहीं हैं. शायर सजीव को इस बात का अहसास बखूबी आत्मसात करना पड़ेगा कि गज़ल लिखनी है तो गज़ल की तहज़ीब से भी बखूबी निभाना पड़ेगा और गज़ल की तहज़ीब का एक महत्वपूर्ण आयाम है उसकी बह्र, जिसकी आज के अनेकों युवा शायर कोई परवाह नहीं करते. इसके बावजूद इन रचनाओं की कुछ पंक्तियाँ सचमुच कवि के महत्वपूर्ण सरोकारों की ओर संकेत करती हैं:
कोई अल्लाह तो कोई राम रट कर कटा है
चौक पर रुसवा जी फिर कोई किताब है शायद (भूल-चूक पृ. 81).
तस्लीमा नसरीन व एम एफ हुसैन को समर्पित रचना ‘आग जंगल की’ (पृ. 80 ) की ये पंक्तियाँ:
फाड़ देते हैं सफहे जो नागवार गुज़रे
तहरीर के नुमाइंदे ऐसे मौजूद यहाँ चंद हैं.
सजीव के इस संग्रह में एक अन्य सुखद बात यह है कि जिन फीके व निकृष्ट कविता संग्रहों की चर्चा मैंने प्रारंभ में की, उनकी तरह कविताओं की संख्या की अकारण भरमार नहीं है. कहीं भी किसी भी कविता में कलम घिसाई या घसीटबाज़ी के संकेत नहीं हैं. कविता चाहे साधारण प्रभाव वाली हो या सशक्त, हर कविता तन्मयता व प्रतिबद्धता से लिखी गई है, यही इस कवि की भविष्य निधि है, यही उसके प्रति पाठकों की आशा.

समीक्षा – प्रेमचंद सहजवाला - वरिष्ठ कथासहित्यकार


Sunday, July 10, 2011

लगा कि जैसे ये कवितायें तो मै जी चुकी हूँ, बस पृष्ठों पर आज उभर आई है - सुनीता शानू

सजीव सारथी का काव्य-संग्रह “एक पल की उम्र लेकर” के बारे में कुछ कहने से पहले मै कवि के बारे में ही कुछ कहना चाहूँगी। सजीव को जब से जाना है, मैने यही महसूस किया है कि वे एक संवेदनशील, उर्जावान, नेक व्यक्तित्व के इंसान हैं। मैने हमेशा उनकी आँखों को कुछ खोजता हुआ ही पाया है। मै समझ नही पाती थी कि वे खुद को हम सबके बीच कैसा महसूस करते थे। किन्तु महसूस करती थी, उनके मन में जो दूसरों के प्रति सम्मान था, जो कभी किसी भी बात पर कम नही होता था। किसी भी गलत बात पर मैने उन्हे असहज होते फ़िर कुछ पल में संयत होते हुए भी देखा है।

अब बात आती है उनकी पुस्तक “एक पल की उम्र लेकर” तो मुझे लगता है, वर्तमान परिवेश की पीड़ा, तड़प, व्याकुलता, अकुलाहट, आक्रोश को उन्होने अपनी कविताओं में बखूबी निभाया है। कितनी पीड़ा, कितना आक्रोश है उनकी इन पंक्तियों में कि... कैसे यकीं दिलाओगे उसे कि/ महफूज है वो/ खबरों की काली सुर्खियाँ/ रोज पढ़ती है वो।
यह कहना कतई गलत नही होगा कि सजीव ने ज़िंदगी की वास्तविकताओं से अपने साक्षात्कार को पूर्ण दायित्व-बोध के साथ उकेरते हुए ईमानदारी के साथ अपनी रचनाधर्मिता का निर्वाह किया है। उनकी यह कविता सचमुच बार-बार पढ़ने का दिल करता है... काश/ मै ऎसी कोई कविता लिख पाता/ कि पढ़ने वाला/ देख पाता अपना अक्स उसमे/ और टूटे ख्वाबों की किरचों को/ फ़िर से जोड़ पाता।

निम्न पंक्तियाँ बताती है कि हर छोटी से छोटी बात को भी कवि ने अपनी कविताओं में जीवन्तता प्रदान की है...कवि अपनी एक कविता में कहता है... वापसी में हम खेत से होकर जाते थे/ जहाँ पानी भरा रहता था/ कीचड़ से सने पाँव लेकर/ कच्ची पगडंडियों से गुजरते थे/ उन कदमों के निशाँ/ अभी तक मिटे नही हैं।

कवि की संघर्ष करने की शक्ति उसमें जीजिविषा और जीवट उत्पन्न करती है। ढुलमुल ज़िंदगी और मानवीय व्यक्तित्व को खंडित करने वाली शक्तियों से कवि आहत अवश्य होता है, किंतु निराश नही है। मन की आँखों में सपने संजोये, अपने अस्तित्व के प्रति सजग कवि कहता है कि... डूबना तो एक दिन किनारों को भी है/ फ़िर क्यों, ना खुदा को खुदा कहें/ क्यों सहारों को ढूँढते रहें/ आओ वक्त के पंखों को परवाज दें/ एक नयी उड़ान दें/ अनजान दिशाओं की ओर।

आप कहेंगे कि आज के युग में सहज, सरल, कौन है? परन्तु सब कुछ कर जाने का जज्बा दिल में होते हुए भी कवि स्वभाव से सरल है, और कितनी सहजता से कवि कहता है... मुझको था भरम /कि है मुझी से सब रोशनाँ/ मै अगर जो बुझ गया तो/ फ़िर कहाँ ये बिजलियाँ/... एक नासमझ इतरा रहा था/ एक पल की उम्र लेकर...।

मुझे नही लगता कि हर कविता को समझाना अनिवार्य है, क्योंकि यदि सम्पूर्ण काव्य-संग्रह की एक-एक कविता ध्यान से पढी जाये तो पाठक स्वय को उन कविताओं का लेखक समझ बैठेगा। मुझे भी एक पल को लगा कि जैसे ये कवितायें तो मै जी चुकी हूँ, बस पृष्ठों पर आज उभर आई है। मेरी शुभकामनाएं है सजीव तुम्हारी कलम हमेशा ऎसे ही चलती रहे.... और गीत,गज़ल,कविताओं के पुष्प वाटिका में सदैव खिलते रहें.।

एक पल की जिंदगी से ही... सूरज के रथ पर बैठकर/ जारी रखना मगर/ तुम अपना सफ़र।

सुनीता शानू
कवियित्री एवं रेडियो उद्घोषिका

Sunday, July 3, 2011

Ek Pal Kii Umr Lekar is Now on Flipkart

Sajeev sarathie's first poetry collection is very well received among the critics, and is now available at India's Best Knows Online Book Selling store Flipkart. Buy it today friends

Ek Pal Kii Umr lekar @ Flipkart

हर एक बात अपनी बात-सी लगती है

मैं आज तक फिल्मी गीतों की समीक्षा करता आया हूँ, लेकिन पहली मर्तबा किसी कविता-संग्रह की समीक्षा करने का मौका हासिल हुआ है। यह मौका दो कारणों से मेरे दिल के करीब है.. एक तो इसलिए कि ये सारी कविताएँ नए दौर की कविताएं है, जो आज के हालात का बखूबी चित्रण करती है और दूजा ये कि इन कविताओं के रचयिता मेरे बड़े हीं प्यारे कवि-मित्र हैं। सजीव सारथी जी का नाम अंतर्जाल पर हिन्दी भाषा के प्रेमियों के लिए नया नहीं है.. बस इस बार नया यह हुआ है कि सजीव जी अंतर्जाल से उतरकर पन्नों पर आ गए हैं। "एक पल की उम्र लेकर" इनका पहला कविता-संग्रह है। मैं इनके कविता-संग्रह की समीक्षा करूँ, इससे पहले पाठकों को यह यकीन दिलाना चाहता हूँ कि मेरी समीक्षा पर इनकी मित्रता का कॊई कुप्रभाव न होगा :) .. मेरी समीक्षा तटस्थ हीं रहेगी..

सजीव जी की कविताओं की सबसे बड़ी खासियत ये है कि इनकी लिखी हर एक बात अपनी बात-सी लगती है,
हर खुशी अपनी हीं किसी खुशी की याद दिलाती है, हर ग़म अपने हीं बीते हुए किसी ग़म का बोध कराता है। ये हर एक अनुभव को अपने अनुभव से पकड़ते हैं। ये जिस आसानी से हँसी लुटाते हैं, उतनी हीं आसानी से आँसुओं की भी बौछार कर डालते हैं। ११० पन्नों के इस कविता-संग्रह में हर तरह के भाव हैं। इनके यहाँ कथ्य का दुहराव नहीं है। ये उन कवियों की तरह नहीं हैं, जिन्हें अगर एक बार ज़िंदगी में बुरे लम्हे नसीब हुए तो उनका लेखन हीं निराशावाद की तरह मुड़ जाता है.. फिर हर एक पंक्ति में उसी दु:ख के दर्शन होते हैं। सजीव जी दु:ख और सुख को तराजू के दोनों पलड़ों पर बराबर का स्थान देते हैं, इसलिए इनकी कविताओं को पढते वक़्त पाठक कोई एक मनोभाव बरकरार नहीं रख सकता। एक पाठक को महज कुछ हीं कविताओं में जीवन के सारे उतार-चढाव दिख जाएँगे।

"साहिल की रेत" कविता में जब कवि अपने पुराने सुनहरे दिनों को याद करता है तो अनायास हीं उसे इस बात का बोध हो जाता है कि जो भी लम्हे हमने गंवा दिए वही काफी थे, जीने के लिए। उन्हें ठुकराकर भी प्यास मिटी तो नहीं।

उन नन्हीं
पगडंडियों से चलकर हम
चौड़ी सड़कों पर आ गए
हवाओं से भी तेज़
हवाओं से भी परे
भागते हीं रहे
फिर भी
प्यासे हीं रहे...


किसी पुराने प्यार, किसी पुरानी पहचान को भुलाना आसान नहीं होता। वह इंसान भले हीं हमारी ज़िंदगी से चला जाए, लेकिन उसकी यादें परछाई बनकर हमारे आस-पास मौजूद रहती है। कुछ ऐसे हीं ख़्यालात "बहुत देर तक" कविता में उभरकर सामने आए हैं:

बहुत देर तक
उसके जाने के बाद भी
ओढे रहा मैं उसकी परछाई को..

बड़े शहरों में छोटे शहरों या गाँवों से मजूदरों का पलायन कोई नई बात नहीं है। यह बात भी किसी से छुपी नहीं कि इन लोगों के साथ कैसा सलूक किया जाता है। ये भले हीं उनके समाज में घुल जाना चाहें, लेकिन बड़े लोगों का समाज इन्हें गैर या प्रवासी हीं बने रहने देना चाहता है। ऐसे प्रवासियों का दर्द और खुद पर गुमान सजीव जी की इस एक पंक्ति से हीं स्पष्ट हो जाता है। कविता है "किसका शहर":

उन सर्द रातों में
जब सो रहे थे तुम
मैं जाग कर बिछा रहा था सड़क..


गाँवों से मजदूरों और किसानों का पलायन केवल केरल तक सीमित नहीं है। यह अलग बात है कि सजीव जी ने केरल के गाँवों की स्थिति अपनी आँखों से देखी है। इसलिए इन्होंने "विलुप्त होते किसान" में हाशिये पर पड़ी इन प्रजातियों पर गहरी टिप्पणी कर डाली है:

सभ्यता के विकास में अक्सर
विलुप्त हो जाती हैं
हाशिये पर पड़ी प्रजातियाँ..


ज़िंदगी से छोटे-छोटे लम्हे बटोर लाना सजीव जी की आदत-सी है शायद। तभी तो इन्होंने किसी की उम्र में "नौ महीने" जोड़ दिए तब हमें मालूम हुआ कि उम्र कहीं छोटी पड़ रही थी। ये नौ महीने जितना एक लडके के लिए मायन रखते हैं, उतना हीं एक लड़की के लिए.. या फिर कहिए कि लड़की के लिए ज्यादा... क्योंकि लड़कियों के लिए वे नौ महीने गुजारने ज्यादा मुश्किल होते हैं... मौत कब गले पड़ जाए कोई नहीं जानता... इस कविता के लिए मैं सजीव जी को विशेष दाद दूँगा।

शिनाख्त उनकी होती है, जिन्हे जीने का हक़ होता है और जो ज़िंदगी को अपने बूते पर जीता है। वह तो बे-शिनाख्त हीं मारा जाएगा, जो रोड़े की तरह पाँव के ठोकर खाता हुआ इधर-उधर फेंका जा रहा हो। दिल्ली-मुम्बई जैसे शहरों में बिहार के पिछड़े गाँव से आने वाले किसी मजदूर (हाँ, वही पलायन की दु:ख भरी दास्तां) की किसने जेब मारी, किसने किडनी और किसने ज़िंदगी.. इसकी कौन खबर लेता है। ये मजदूर और इनके परिवार वाले तो यही मानते हैं कि स्वर्ग के दर्शन हो रहे हैं, लेकिन जो होता है उसका जीता-जागता ब्योरा सजीव जी की "बे-शिनाख्त" कविता में है। सच हीं लिखा है आपने:

और किसी को कानों-कान
खबर भी नहीं लगती..


प्यार... बड़ा हीं प्यारा अनुभव है। इसमें जीत क्या और हार क्या... प्यार को अगर शतरंज की बाजी की तरह समझा जाए तो सजीव जी की "शह और मात" कविता हर चाल के साथ फिट बैठती है और फिर... इन पंक्तियों के क्या कहने:

मैंने खुद को विजेता-सा पाया
जब तुमने मुस्कुराते होठों से कहा -
यह शह है और ये मात।


दंगों में बस इंसान हीं ज़ाया नहीं होते.. इंसान के द्वारा गढे गए शब्द भी अपना अर्थ खो देते हैं। दोस्ती, प्यार, विश्वास, इंसानियत.. ऐसे न जाने कितने शब्दों की मौत हो आती है। "शब्द" कविता में कवि इन्हीं आवारा शब्दों की शिकायत करते हुए कहता है कि:

शब्द
जो एक अमर कविता बन जाना चाहते थे
कुछ दिन और ज़िंदा रह जाते-
अगर जो खूँटों से बँधे रहते।


कश्मीर.. यह क्या था, इसे क्या होना था.. लेकिन यह क्या होकर रह गया है.. इस सुलगते शहर में अब दर्द भी सुलगते हैं। आँखों में रोशनी की जगह गोलियों के सुराख ... आह! इस दर्द को महसुस करना हो तो "सुलगता दर्द-कश्मीर" एक बार ज़रूर पढ लें।

कहा था ना कि दर्द और प्यार.. खुशी और ग़म.. हर तरह के अनुभव सजीव जी के इस संग्रह में मौजूद है। तो लीजिए.. अगली हीं कविता में "हृदय" की कोमलता से रूबरू हो आईये। क्या खूब कहा है कवि ने:

क्या करूँ, मुश्किल है लेकिन
खुद से हीं बचकर गुजरना।


"एक पल की उम्र लेकर" कविता-संग्रह में न सिर्फ़ उन्मुक्त छंद हैं, बल्कि कई सारी ग़ज़लें भी हैं। उन्हीं में से एक है "रूठे-रूठे से हबीब"। इस ग़ज़ल के एक शेर में कवि इस बात का खुलासा कर रहा है कि आजकल प्रेम परवान क्यों नहीं चढता?

कहाँ रहा अब ये प्रेम का ताजमहल,
ईंट-ईंट में अहम के किले हैं कुछ..


दूसरी ग़ज़ल है "भूल-चूक"। दंगे-फ़सादों में जब भी किसी इंसान की जान ली जाती है तो उस समय एक इंसान नहीं एक धर्म निशाने पर होता है और निशाना भी एक धर्म की ओर से हीं लगाया जाता है। उस वक़्त कोई गीता की शपथ लेता है तो कोई क़ुरआन के कलमें पढता है। इसी लिए कवि ने कहा है कि:

कोई अल्लाह तो कोई राम रट कर कटा है,
चौक पर रूसवा हुई है फिर कोई किताब शायद..


मंज़िल उन्हीं को हासिल हुई है, जिन्होंने रास्तों की खोज़ की है। कुएँ के मेढक की तरह सिमटकर बैठे रहने से कुछ भी हासिल नहीं होता। कभी न कभी अनजान दिशाओं की ओर बढना हीं होता है। कभी न कभी नाखुदा से ज्यादा खुद पर भरोसा करना होता है। सजीव जी अपनी इन बातों को रखने में पूरी तरह से सफल हुए हैं:

आओ वक़्त के पंखों को परवाज़ दें,
एक नयी उड़ान दें
अनजान दिशाओं की ओर।


सदियों से इंसान के सामने सबसे बड़ा यक्ष-प्रश्न यही रहा है कि वह आया कहाँ से है। आज तक इसका उत्तर कोई जान नहीं पाया है। फिर भी वक़्त-बेवक़्त हर कहीं यह प्रश्न किसी न किसी रूप में सामने आता हीं रहता है। "कफ़स" कविता में यह प्रश्न कुछ इस तरह उभर कर आया है:

आसमान पे उड़ने वाले परिंदे की
परवाज़ जो देखी तो सोचा कि-
मेरी रूह पर
ये जिस्म का कफ़स क्यों है?


एक कवि किस हद तक सोच सकता है यह जानना हो तो सजीव जी की "सूखा" कविता पढें जहाँ ये कहते हैं कि:

मेरे भीतर-
एक सूखा आकाश है।


"सिगरेट" न सिर्फ़ जिगर को खोखला करता है, बल्कि ज़िंदगी जीने के जज्बे को भी मार डालता है। इंसान अपने ग़म मिटाने के लिए सिगरेट की शरण ले तो लेता है, लेकिन जब उसे अपने अंतिम दिन सामने नज़र आते हैं तब जाकर शायद उसे इस बात का पता चलता है कि:

मगर जब देखता हूँ अगले हीं पल
ऐश-ट्रे से उठते धुवें को
तो सोचता हूँ,
ज़िंदगी -
इतनी बुरी भी नहीं है शायद।


इस संग्रह में और भी कई सारी अच्छी कविताएँ, ग़ज़लें एवं क्षणिकाएँ हैं, लेकिन सब का ज़िक्र यहाँ मुमकिन नहीं है। इसलिए मैंने उनमें से अपनी पसंद की पंक्तियाँ चुनकर उनकी समीक्षा की है। हो सकता है कि पाठक को या फिर दूसरे किसी समीक्षक को कोई और पंक्तियाँ ज्यादा पसंद हों। अपनी-अपनी राय है.. अपना-अपना मंतव्य है। अगर पूरे संग्रह की एक बार बात की जाए तो हर कविता का अंत बेहतरीन है। इस मामले में मैं सजीव जी का बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ कि वे जानते हैं कि कौन-से शब्द और कौन-से वाक्य कहाँ रखे जाने हैं।

चूँकि शुरूआत में मैंने कहा था कि मेरी समीक्षा तटस्थ होगी, तो मैंने संग्रह में दो-चार ऐसी भी पंक्तियाँ ढूँढ निकाली हैं, जहाँ या तो मैं थोड़ा दिग्भ्रमित हुआ या फिर मुझे लगा कि शिल्प थोड़ा ठीक किया जा सकता था।

उदाहरण के लिए "पराजित हूँ मैं" कविता की इन्हीं पंक्तियों को लें:

मेरा रथ हीं तो दलदल में
फँसाया था तुमने
मेरा वध हीं तो छल से
कराया था तुमने।


मेरे हिसाब से अगर "हीं" को "रथ" और "वध" के पहले रखते तो अर्थ ज्यादा साफ़ होता। तब यह अर्थ निकलता कि "मेरा" हीं रथ ना कि "किसी" और का। "हीं" को बाद में रखने से वाक्य का जोर "रथ" और "वध" पर चला गया है, जो कि "मेरा’ पर होना चाहिए था।

अगली कविता है "संवेदनाओं का बाँध"। इस कविता के अंतिम छंद को मैं सही से समझ नहीं पा रहा हूँ।

मन की हर अभिव्यक्ति को
शब्दों में ढल जाने दो
कोरे हैं ये रूप इन्हें
कोरे हीं रह जाने दो।


यहाँ शुरू की दो पंक्तियों में कवि यह कहना चाहता है कि मेरी हर अभिव्यक्ति को आवाज़ मिले, शब्द मिले। लेकिन अंतिम दो पंक्तियों में "कोरे" को "कोरे" रह जाने दो.. कहकर "अभिव्यक्ति" को "अभिव्यक्ति" हीं रहने देने की बात हो रही है या फिर कुछ और? मैं चाहूँगा कि सजीव जी मेरी इस शंका का समाधान करें।

"आलोचना" वाली श्रंखला की अंतिम कविता है "आज़ादी"। इस कविता की एक पंक्ति में कवि ने "कारी" शब्द का इस्तेमाल किया है। मेरे हिसाब से कारी "काली" का हीं देशज रूप है। यह मानें तो पंक्ति कुछ यूँ बनती है:

उफ़्फ़ ये अँधेरा कितना काली है..

अब यहाँ "लिंग-दोष" आ गया है, क्योंकि अंधेरा पुल्लिंग है। अँधेरा की जगह अगर तीरगी को रखें तो यह दोष जाता रहेगा..

बड़ी हीं मेहनत-मशक्कत के बाद मैं इस कविता-संग्रह में बस ये तीन कमियाँ (शायद) निकाल पाया हूँ। बाकी तो आपने ऊपर पढ हीं लिया है।

मैं अपनी इस समीक्षा को विराम दूँ, उससे पहले सजीव सारथी जी को इस कविता-संग्रह के लिए बहुत-बहुत बधाईयाँ देना चाहूँगा और दुआ करूँगा कि उनके ऐसे और भी कई सारे संग्रह निकलें।

एक बात और... इस पुस्तक का जब भी दूसरा संस्करण निकले या फिर आपका कोई नया पुस्तक आए, तो इस बात का ज़रूर ध्यान रखें कि उर्दू के शब्द उर्दू जैसे हीं दिखें यानि कि नुख़्ते को नज़र-अंदाज़ न किया जाए।

विश्व दीपक
कवि, गीतकार और सोफ्टवेयर इंजीनियर