(एक पल की उम्र लेकर – कवि सजीव सारथी. पृष्ठ संख्या : 110. Rs. 100, $ 2,
प्रकाशक : हेवेनली बेबी बुक्स, कोची केरल).
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प्रायः कविता संग्रहों को ले कर इस प्रकार की टिप्पिणियाँ सुनने को सहज ही मिल जाती हैं कि कविता अब एक इंडस्ट्री सी हो गई है, देश की हर गली नुक्कड़ पर कोई न कोई कवि ज़रूर मिल जाता है. शायद यह स्थिति कई वर्षों से है. पर इस के साथ ही यह भी एक कटु सत्य है कि कई कविता संग्रह पढ़ने पर उनके फीकेपन या निकृष्टता पर खीज सी भी होती है. इन पंक्तियों के लेखक भी पिछले कुछ महीनों से मुफ्त में मिले कुछ प्रभावहीन कविता संग्रह पढ़ने का अप्रिय अनुभव बटोरते रहे पर हेवेनली बेबी बुक्स, (कोची, केरल) से प्रकाशित सजीव सारथी का प्रथम संग्रह ‘एक पल की उम्र ले कर’ पढ़ने के बाद इस बात का सुखद अहसास अवश्य होता है कि इन तमाम कूड़ानुमा संग्रहों (जिनके कवि अधिकांशतः अपना ही पैसा फूंक कर संग्रह छपवाते हैं व घर में ही पुस्तकों का गोदाम बना लेते हैं) के बीच कोई कोई सार्थक प्रयास करता कवि भी मिल जाता है और काव्य-प्रेमी हृदय को एक सुखद सी अनुभूति भी होती है. सजीव सारथी के इस संग्रह के सरोकार सामाजिक भी हैं तो राष्ट्रीय भी, और वैश्विक भी तो कहीं कहीं वैयक्तिकता का पुट भी मिलता है. कवि स्वयं अभी एक उभरते हुए कवि है फिर भी बतौर एक बानगी के मैं इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कविता ‘एक और अंत’ (1) की कुछ काव्य पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ. इस कविता में पूरब और पश्चिम की अपनी अपनी त्रासदियों बल्कि उनकी घातकताओं का बहुत प्रभावशाली कंट्रास्ट प्रस्तुत कर के कवि ने अपने भीतर एक प्रखर विचारक विश्लेषक होने का सबूत प्रस्तुत किया है:
‘पूरब अपनी ही वर्जनाओं में जकड़ गया/ अपने ही संस्कारों से ऊब गया/ उसने आत्मा से मुंह मोड़ लिया/ वह जीवन के सत्यों को भूल गया/... पश्चिम अपनी संभावनाओं पर अकड़ गया/ अपनी कामयाबी पर फूल गया/ उसने मौत को चुनौती दे डाली/ वह वासनाओं में उलझ गया/ वह मुगालते में था कि दुनिया जीत ली पर खुद को जीतना भूल गया/... पूरब ने भ्रमित हो कर अपने ज्ञान को फूंक दिया/ और उसकी राख सूरज के मुंह पर मल दी/ आधा संसार धुंधला हो गया/ पश्चिम यह देख कर ठा-ठा कर हंसा/ अपने गुरूर में चूर हो कर उसने/ अपने विज्ञान का परमाणु/ सूरज के सर पर फोड़ दिया/... और अगले ही पल सारा संसार अंधा हो गया... (pp 44-46).
कवि मन से उभरती विषयों की विविधता या एक आल-राऊंडर होने की ललक तभी अच्छी लगती है जब उसकी कलम से अनुभव व सोच के विस्तार के स्पष्ट लक्षण मिलें. सजीव की कविताओं में विषयों का विस्तार है जो उनके भीतर निर्माणाधीन एक बड़े फलक के संकेत स्पष्ट रूप से देता है. उदाहरण के तौर पर पृ. 24-25 पर कविता ‘किसका शहर’ पढ़ी जा सकती है. कुछ पंक्तियाँ:
उस फुटपाथ पर/ सुनता था फर्राटे से दौड़ती/ तुम्हारी गाड़ियों का शोर/ आज भी गूंजता है जो मेरे कानों में/ फिर जब रहता था उस तंग सी बस्ती में/ जहाँ करीब से हो कर गुज़रता था/ वो गंदा नाला/ तो याद आती थी मुझे/ गाँव की वो बाढ़ में डूबी फसलें/ और पिता का वो उदास नाकाम चेहरा/ माँ की वो चिंता भरी आँखें...
स्पष्ट है कि कवि-मन के शब्द ठीक उसके भीतर की भाव भूमि से उन अनुभूतियों को ले कर कागज़ पर उतरते हैं जिन्हें कवि स्वयं हो या वह फुटपाथ पर सोने वाला मजदूर, सचमुच में जीता है.
कवि अपने ऑब्ज़र्वेशन को कहीं कहीं बहुत मार्मिक प्रतीकों में प्रकट कर पाठक के भीतर संवेदना का मार्मिक प्रवाह सा कर देता है:
‘स्कूल से लौटते बच्चे/ कंधों पर लादे/ ईसा का सलीब/ भारी भरकम बस्ते...’ (पृ. 33 हुजूम).
राष्टीय स्वर से ओत प्रोत कविता ‘आज़ादी’ (पृ. 73-74) एक अच्छी कविता है जो आज़ादी पर्यंत के मोहभंग को देख किसी भी कवि-मन की सुपरिचित सी लगती टुटन को पाठक मन तक ले जाती है:
मगर बेकार हैं/ चीखें उन औरतों की/ जो घरों में हैं, घरों के बाहर हैं/ झेलती बलात्कार हैं/ चकलों में, चौराहों में शोर है/... हैवान सड़कों पर उतर आए/ सिंहासनों पर विराज गए/ अवाम सो गई/ नपुंसक हो गई कौम/ हिंदुओं ने कहीं तोड़ डाली मस्जिदें/ तो मुसलमानों ने जला डाले मंदिर कहीं...
कविताएं ‘दीवारें’ (पृ. 18-19), ‘ठप्पा’ (पृ. 22-23), ‘ऐसी कोई कविता’ (पृ. 27-28), ‘विलुप्त होते किसान’ (पृ. 30-31), ‘मिलन’ (पृ. 56) आदि भी संग्रह की अच्छी कविताओं के कुछ उदाहरण हैं. कविता ‘एक ही छत के नीचे’ (पृ. 64-65) आधुनिकता और एक संवेदनशील दादा की पोते के प्रति संवेदना के बीच के कंट्रास्ट को उभारती बहुत मार्मिक कविता है. कवि ने चार गज़लें भी लिखी हैं जिन्हें गज़लें कहा नहीं है. गज़ल की एक पहचान यह है कि उसके सभी शेर एक दूसरे से स्वतंत्र अपने अलग अलग भाव प्रस्तुत करते हैं. इस दृष्टि से पृ. 78-81 की चार रचनाएँ गजलें हैं. पर इन गज़लों के शायर सजीव गज़ल के व्याकरण से सर्वथा अनभिज्ञ रह कर उनकी उपेक्षा करते हैं, इसलिए ये गज़लें नहीं हैं. शायर सजीव को इस बात का अहसास बखूबी आत्मसात करना पड़ेगा कि गज़ल लिखनी है तो गज़ल की तहज़ीब से भी बखूबी निभाना पड़ेगा और गज़ल की तहज़ीब का एक महत्वपूर्ण आयाम है उसकी बह्र, जिसकी आज के अनेकों युवा शायर कोई परवाह नहीं करते. इसके बावजूद इन रचनाओं की कुछ पंक्तियाँ सचमुच कवि के महत्वपूर्ण सरोकारों की ओर संकेत करती हैं:
कोई अल्लाह तो कोई राम रट कर कटा है
चौक पर रुसवा जी फिर कोई किताब है शायद (भूल-चूक पृ. 81).
तस्लीमा नसरीन व एम एफ हुसैन को समर्पित रचना ‘आग जंगल की’ (पृ. 80 ) की ये पंक्तियाँ:
फाड़ देते हैं सफहे जो नागवार गुज़रे
तहरीर के नुमाइंदे ऐसे मौजूद यहाँ चंद हैं.
सजीव के इस संग्रह में एक अन्य सुखद बात यह है कि जिन फीके व निकृष्ट कविता संग्रहों की चर्चा मैंने प्रारंभ में की, उनकी तरह कविताओं की संख्या की अकारण भरमार नहीं है. कहीं भी किसी भी कविता में कलम घिसाई या घसीटबाज़ी के संकेत नहीं हैं. कविता चाहे साधारण प्रभाव वाली हो या सशक्त, हर कविता तन्मयता व प्रतिबद्धता से लिखी गई है, यही इस कवि की भविष्य निधि है, यही उसके प्रति पाठकों की आशा.
समीक्षा – प्रेमचंद सहजवाला - वरिष्ठ कथासहित्यकार
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