“उस “सारथी” के नाम जो इस सजीव शरीर में बसता है।" ‘सजीव सारथी’ नें समर्पण के इसी वाक्यांश में अपने पहले काव्य संग्रह “एक पल की उम्र ले कर” के मर्म को प्रस्तुत किया है। कवितायें पढते हुए बगीचे में खिले नये पुष्प की खुशबू सी आती है, तो बरसाती नदी के प्रवाह से निकलता कल कल स्वर सा भी महसूस होता है। कोई बनावटीपन नहीं, कोई लच्छेदार भाषण-संभाषण नहीं, कहीं कोई ओज-आक्रोश नहीं, कोई धारा-विचारधारा के प्रलाप नहीं अपितु विशुद्ध कवितायें हैं इस संग्रह में। हेवेन्ली बेबी बुक्स, कोच्चि केरला से प्रकाशित संग्रह में प्रस्तुत रचनायें इतनी तराशी हुई हैं कि यकीन करना कठिन है यह किसी ‘अहिन्दी भाषी’ की कवितायें हैं। हर शब्द सटीक और भाव भरा जैसे यह सजीव की अपनी ही भाषा है, हिन्दी-अहिन्दी की दीवार के मायने क्या? अपनी भूमिका में शास्त्री जे सी फिलिप सजीव की कविताओं को सहज कवितायें पारिभाषित करते हैं। वे लिखते हैं कि “अधिकतर कवियों के साथ परेशानी यह है कि उनकी दस रचनायें पढ लीजिये तो उसके बाद की हर रचना पहले जैसी लगती है। लेकिन सजीव की हर रचना अपने आप में नयापन लिये रहती है.. “। वे आगे लिखते हैं - “प्रस्तुत पुस्तक की रचनाओं नें सिर्फ यादों और कुंठाओं को ही नहीं बल्कि मन की मधुर-से-मधुर अभिलाषाओं को एवं दिमाग की कठिन से कठिन (दार्शनिक) कसरतों को भी अपनी पंक्ति में बाँधा है“। उन्होंने पुन: लिखा है - “आज के पाठक को कविता ऎसी चाहिये जो उसे आकर्षित करे, पढते ही अर्थ समझ में आने लगे, और साथ-ही-साथ आँखों से हो कर गुजरते शब्द मन को स्पर्श भी करते जाये”।
सजीव की कविताओं पर इस उद्धरणों से बात आगे बढायी जा सकती है। मैं सजीव की कविताओं पर “नवोदित रचनाकार” की परची नहीं चिपका सकता। कथ्य, शिल्प और दार्शनिक चिंतन कवि को रचना-संसार में कई पायदानों उपर खडा करता है। कविता के शीर्षक छोटे हैं और प्राय: उनमें पूरी रचना का मर्म मिल जाता है। कविता में दार्शनिक तत्वों की अधिकता के कारण कई बार एक कविता पढते हुए अनेक कवितायें पढ जाने का भान होता है। कवितायें हर पठन पर नये स्वरूप और नये ही परिधान में झांकती मुस्कुराती हुई पाठक से स्वयं को एकाधिक बार बढे जाने का आग्रह करती हैं। संग्रह में प्राय: मुक्त कवितायें हैं लेकिन उनमें रसानुभूति है तथा अलंकारिकता है। मैं विषयों की विविधता पर भी अवश्य चर्चा करना चाहूंगा। सजीव नें अपने अंतस को भी विषय बनाया है, अपनी सोच को भी विषय बनाया है, अपने ‘ऑब्जरवेशन’ को भी विषय बनाया है, अपने सामाजिक सरोकारों को भी विषय बनाया है, प्रकृति को भी विषय बनाया है तो अपने सपनों को भी विषय बनाया है।
कवि की रचनाओं में “मैं” तत्व अनेक स्थलों पर प्रस्तुत हुआ है। यह इस लिये कि कवि अपने अनुभवों की व्याख्या अपने बिम्बों के माध्यम से स्वयं ही करना चाहता है। उसे वे प्रतीक सहज लगते हैं जिनमें वह खुद एक पात्र हो कर व्याख्यान दे सके -
चट्टान मेरी तरह खामोश है/ और मैं जड़, उसकी तरह
आज भी वो पेड मेरे सामने है/और मैं देखता हूँ
उसकी नंगी शाखों से परे/ चमकती हुई लाल गेंद
आसमान पर लटकी हुई/ मेरी पहुँच से मीलों दूर।
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सदियों से बह रहा हूँ/ किसी नदी की तरह
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कलम अपनी/ तुम्हारे गले से लग कर
रोना चाहता हूँ फिर मैं/ और देखना चाहता हूँ फिर
तुम्हें चहकता हुआ/ अपनी खुशियों में
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कल मैने दर-बदर देखा था उसके बच्चों को,
पी गयी क्या एक घर और ये शराब शायद।
सजीव सामाजिक सरोकारों से जुड कर लिखते हैं। उनकी कलम विद्रोही तो हर्गिज नहीं है लेकिन चुप रह कर बैठने वाली भी नहीं है। वे शब्द चित्र उपस्थित कर देते हैं जिन्हें पढते ही जैसे कोई पेंटिंग सी आँखों के आगे उपस्थित हो जाती है। एसा शब्द चित्र जो सोचने का धरातल देता है और पाठक पर ही फैसला छोड देता है कि यह आज का सच है और अब तुम जानों कि इसी के साथ जीना चाहते हो या प्रतिकार करना। कवि फैसले सुनाने में यकीन नहीं रखता इसी लिये शब्दचित्र परिणामों तक जा कर मुक्ताकाश हो जाते हैं...गहरी सोच में पाठक को छोड कर ये कवितायें चलती बनती हैं। सजीव नें व्यंग्य को नहीं आजमाया है यद्यपि कई बात कविताओं के अर्थों में यह छुपा-ढका सा मिलेगा। यदि आप तनिक भी संवेदनशील हैं तो मखमल से प्रतीत होने वाले सजीव के शब्द आपको चुभेंगे अवश्य -
एक नन्हीं सी चिंगारी/ कहीं राख में दबी थी
लपक कर उसने/ किरणों को छू लिया/ सूखे पत्तों को आग लगा दी
हवाओं में उडा दिया।
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कुछ धार्मिक हो जाते हैं/ रट लेते हैं वेद पुराण/ कंठस्थ कर लेते हैं
और बन जाते हैं तोते/करते रहते हैं वमन-
कुछ उधर लिये हुए शब्दों का उम्रभर/ और दूकान चलाते हैं
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तुम कौन हो सुनाने वाले/ तनिक उससे भी तो पूछो
कौन अपना है उसका
मेरा लहू गिरा है पसीना बन कर/ उसके दामन में
महक मेरी मिट्टी की/ बखूबी पहचानता है वो।
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धरती का दामन सुर्ख हुआ जाता है
फिर आदम नें खुल्द में/ किसी जुर्म को अंजाम दिया है
इस बार/ खून खुदा का बहा है शायद
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मैं एसी कोई कविता लिख पाता
कि पढने वाला/ पेट की भूख भूल जाता
और प्यासे मन की/ दाह को तृप्त कर पाता
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सभ्यता के विकास में अक्सर
विलुप्त हो जाती हैं/ हाशिये पर पडी प्रजातियाँ
विलुप्त हो रहे हैं हल जोतते/ जुम्मन और होरी आज
मेरे गाँव में/ विलुप्त हो रहा है – किसान।
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अपने अपने सपनों से जागते हैं
आदमी, चिडिया/ खरगोश, भेडिया
और, अपने पेट की अतडियों में/ बजते हुए नगाडे सुनते हैं
और फिर शुरु होती है/ अपनी अपनी भूख से लडते जीवों की/ दिनचर्या
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मुझको ही तो ढाल बना कर आखिर
तलवार चला रहे हो तुम
जन्मों से जी रहा हूँ इस संग्राम को मैं
लहू से अपने भडका रहा हूँ इस आग को मैं
थक चुका हूँ, चूक चुका हूँ/खुद को बहुत फूँक चुका हूँ
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शब्द कुछ/कल शाम निकले थे/बाजार में घूमने
रात शहर में हुए/बम धमाकों में मारे गये
दोस्ती/प्यार/विश्वास/इंसानियत
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खोखली है बुलंदियाँ/ दिखावे की सब रौनक है
ये वो इमारत है/ जिसकी नींव तले/ कई ख्वाब दफन हैं।
मैं इन उद्धरित पंक्तियों के माध्यम से यह वकालत करना चाहता हूँ कि समकालीनता की बहस में भी सजीव की ये कविताए अपना स्थान रखती हैं। आप इन्हें हल्के में नहीं ले सकते या खारिज नहीं कर सकते। सजीव का समाज विषयक अपना दृष्टिकोण है तथा वे बिना बहस में पडे “विचारधाराओं” को भी कटघरे में खडा
करते हैं –
चारो दिशायें मिल जायें तो भी/ दुनियाँ एक हो जाये तो भी
ताकत ही राज करेगा फिर भी
कमजोर दबाये जायेंगे यूँ ही/ शासन यही रहेगा फिर भी
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भूख पेट की सब को नोचती/जिस्म की तडप भी है एक सी
चाह भी वही, आह भी वही/मंजिलें वही, राह भी वही
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क्यों है आखिर/ अपनी ही सत्ता से कटा छटा
क्यों है यूँ/अपने ही वतन में अजनबी-/आम आदमी।
मैं कवि के स्त्रीविमर्श को भी आडंबरविहीन मानता हूँ। उद्धरित कविता असाधारण है जो माँ-बेटी की नोक झोंक पर ही केन्द्रित नहीं है अपितु वह माँ की प्रसव पीडा से ले कर एक बेटी के अपने साथ होने के कोमल असहास की बानगी भी है। हजारो अर्थ हैं इन पंक्तियों के और इस विषय पर हर बहस के केन्द्र में ये पंक्तियाँ स्वत: पायी जाती हैं -
थाली में रखे/ मटर के दाने/ बिखर गये
”हे मरी”/माँ नें एक/ मीठी सी गाली दी
अपनी किस्मत को कोसा/ फिर उठ कर/ बिखरे दाने बीनने लगी।
आज उस बच्ची का जन्मदिन है।
आज वह पूरे नौ साल की हो जायेगी
नौ साल, नौ महीने की।
इसी तरह अपने बेटे को स्कूल छोडने जाता और समझाता कोई मजदूर जब बडी बडी कोठियाँ देखता है तो उसके सपनों के स्वर उँचे हो जाते हैं। लेकिन इतना ही तो नहीं....कविता वर्ग संघर्ष की बात करते हुए बिना जिन्दाबाद और मुर्दाबाद के नारे लगाये धरती और आसमान के क्षितिज बन जाने का ही स्वप्न है -
यूँ भी उसका स्वर तेज है
मगर उसकी आवाज/ उस गली से गुजरते वक्त
और तेज हो जाती है/ जहाँ कोठियाँ हैं
बडे-बडे रईसों की।
कविता लिखी नहीं जाती यह अवतरित होती है। यह जितना सरोकारों को अभिव्यक्त करती है उतना ही आत्ममंथन भी। कविता आग या तपिश ही नहीं होती वह तो सुनहला मोरपंख भी होती है और सुबह की पहली धूप भी होती है। कविता बाँसुरी की धुन भी है और बारिश की रिमझिम भी। यह तो कवि है जब बारिश में जंगल को देखता है तो उसे नाचता मोर दिखता है लेकिन शहर भी तो खूबसूरत है? बारिश उसे भी तो नहला कर तरोताजा कर जाती है? मिट्टी का सोंधापन उसे भी तो महमाता है और कवि कैसे चूक सकता हैं? उसकी कलम सजीव हो उठती है -
सुरमई आकाश बरसता है/ आशीर्वाद की तरह
बूंदों की टप टप स्वरलहरियों से/ एक भीनी भीनी, सौंधी सौंधी
ठंडक सी उतरती है/ बारिश में भीगता है जब ये शहर।
किंतु एसा भी नहीं कि गाँव सजीव को नहीं खींचता या कि बीता हुआ समय उसे शब्दों की चित्रकारी करने को बाध्य नहीं करता। वे बखूबी से लिखते हैं –
कीचड से सने पाँव ले कर
कच्ची पगडंडियों से गुजरते थे
उन कदमों के निशां/ अभी मिटे नहीं हैं
कविता में बिम्ब नये हैं और जीवंत हैं। जैसे चित्रकार नें सही गढा है और सच्चे रंग भरे हैं। बिम्ब अनूठे भी हैं और कई बात चमत्कृत भी कर देते हैं। बिम्ब किसी दूसरी दुनिया से उठा कर नहीं लाये गये हैं वे आस-पास से ही बीने बटोरे गये हैं। कभी बोतल बिम्ब है तो कभी शतरंज तो कभी पीपल तो कभी दर्पण -
मैं देखता हूँ अक्सर/एक छोटी सी बोतल
जिसमें कैद है/ एक देवता और एक शैतान
जो बिना एक हुए/ आ नहीं सकते बोतल के बाहर
एक हो कर दोनों/ कैद से तो छूटते हैं
पर लडकर फिर अलग हो जाते हैं।
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मन की शतरंज/ चौंसठ दोरंगी खानों की बिसात
उसपार सोलहों मोहरे तुम्हारे/ इसपार सोलहों मेरे
तुम आशा के अनुरूप/ अडिग, आश्वस्त और निश्चिंत
मैं बीते अनुभवों से कुछ/ सहमा, डरा, और अव्यवस्थित
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ज़िन्दगी तो थी वहीं/ जिसके सायों को हमनें
डूबते सूरज की आँखों में देखा था
उस बूढे पीपल की/ छाँव में ही सुकून था कहीं
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नींद के टूटे दर्पण से/ कुछ ख्वाब चटख कर
बिखर गये थे कभी/ चुभते हैं अब भी आँखों में
वो काँच के दाने।
सजीव की आत्मचिंतन और आत्ममंथन करती हुई कवितायें कहीं भी कुंठित नहीं है। वह पाठक को घुटाती नहीं है। ये कवितायें आशावादी हैं, उम्मीद से भरी हुई हैं। ये कवितायें आध्यात्म भी हैं और श्रंगार भी। कवितायें हार को अस्वीकार भी हैं तो उम्मीद का अम्बार भी। ये कभी स्वयं प्यास हैं तो कभी प्रश्न। कवितायें कभी सुझाव हैं तो कभी उत्तर भी हैं -
कितने किनारे/ पानी में समा गये
फिर भी प्यासे रहे
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जैसे कुछ अनसुलझी गुत्थियाँ/ कुछ अनुत्तरित सवालों का
समूहगान जैसे/ कैसी विडम्बना है ये
आखिर हम मुक्त क्यों नहीं हो पाते?
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खोल दो इन दरीचों को/ ताकि एक बार फिर
गुलाबी धूप/छू सके मुझे आ कर
इन सब्ज झरोखों से।
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मगर कुछ बदनसीब/ एसे भी रह जाते हैं
जिनपर कोई रंग नहीं चढ पाता पर भी
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हम अपने बचपन की केंचुली को
धीरे धीरे उतारते हैं।
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एसा स्पर्श दे दो मुझे
जिसकी अनुभूति के लिये/ उम्र भी एक महज हो
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मेरे तलवों तले से निकलता
ये साया/ मेरा है भी या नहीं
या फिर मेरे जैसा कोई और है
जिसने मेरे पैरों में/ सफर बाँध रखा है।
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फिर क्यों, नाखुदा को खुदा कहें
क्यों सहारों को ढूंढते रहें
आओ वक्त के पंखों को परवाज दें
एक नयी उदान दें/ अनजान दिशाओं की ओर।
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तभी कहीं दूर से, एक किरण आई
पलकों पर बिखर गयी/ लगा किसी नें कहा हो-
उजाला हो गया/ अब तो सच को पहचानो।
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एक नासमझ इतरा रहा था
एक पल की उम्र ले कर।
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वो समेट लेता है मेरे सारे आँसू/ अपने दामन में
फिर प्यार से काँधे पर रख कर हाँथ
कहता है – अभी हारना नहीं/अभी हारना नहीं
काव्य संग्रह के अंतिम पृष्ठ पर प्रकाशित परिचय कहता है कि सजीव मूलत: एक गीतकार हैं जो कविताओं में अपने आप को तलाश करते रहते हैं। काव्य संग्रह “एक पल की उम्र ले कर” में सजीव का सिर्फ एक गीत और कुछ गज़लें ही उपलब्ध हैं। कुछ उदाहरण इस विधा में उनकी दक्षता की ओर इशारा करते हैं -
देखता है क्यों हैरान हो कर, आईना मुझे रोज,
ढूंढता है, मुखौटों के शहर में एक चेहरा – मुखौटा।
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ख्वाब बोये जो हमने, क्या बुरा किया।
चंद मुरझा गए तो क्या, खिले हैं कुछ।
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पीकर के जहर भी, सूली पर मर कर भी,
जिन्दा है सच यानी, झूठ के भाले कुंद हैं।
सजीव सारथी नें अपने काव्य संग्रह के साथ ही अंतर्जाल की दुनिया के बाहर स्वयं को विस्तारित किया है। उनके आगामी काव्यसंग्रहों की प्रतीक्षा है तथा उन्हें निरंतर सृजन के लिये हार्दिक शुभकामनायें।
Rajeev Ranjan Prasad.
Poet and Writer
Editor - Sahitya Shilpi
बहुत ही सशक्त समीक्षा की है राजीव जी ने ... आपकी पुस्तक से तो मैं रूबरू हो ही चुकी हूँ ... राजीव जी की कलम ने आपको बखूबी उतारा है -
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