Monday, August 1, 2011

सुजॉय ने चुने "एक पल की उम्र लेकर" से १० अपनी पसंदीदा कवितायेँ - आज की कविता - सरफिरा है वक्त

अंतरजाल पर सबसे प्रसिद्ध श्रृंखलाओं में से एक "ओल्ड इस गोल्ड" के स्तंभकार सुजोय चट्टर्जी ने अपनी नयी श्रृंखला कविता संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" को समर्पित किया है. जिसमें संग्रह से उन्होंने १० अपनी पसंदीदा कवितायेँ चुनी हैं जिनपर आधारित १० फ़िल्मी गीतों को भी उनके भाव से जोड़ा है.

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Episode 01

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है आप सभी का इस सुरीले सफ़र में। कृष्णमोहन मिश्र जी द्वारा प्रस्तुत दो बेहद सुंदर शृंखलाओं के बाद मैं, सुजॉय चटर्जी वापस हाज़िर हूँ इस नियमित स्तंभ के साथ। इस स्तंभ की हर लघु शृंखला की तरह आज से शुरु होने वाली शृंखला भी बहुत ख़ास है, और साथ ही अनोखा और ज़रा हटके भी। दोस्तों, आप में से बहुत से श्रोता-पाठकों को मालूम होगा कि 'आवाज़' के मुख्य सम्पादक सजीव सारथी की लिखी कविताओं का पहला संकलन हाल ही में प्रकाशित हुआ है, और इस पुस्तक का शीर्षक है 'एक पल की उम्र लेकर'। जब सजीव जी नें मुझसे अपनी इस पुस्तक के बारे में टिप्पणी चाही, तब मैं ज़रा दुविधा मे पड़ गया क्योंकि कविताओं की समीक्षा करना मेरे बस की बात नहीं। फिर मैंने सोचा कि क्यों न इस पुस्तक में शामिल कुल ११० कविताओं में से दस कविताएँ छाँट कर और उन्हें आधार बनाकर फ़िल्मी गीतों से सजी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला पेश करूँ? फ़िल्मी गीत जीवन के किसी भी पहलु से अंजान नहीं रहा है, इसलिए इन १० कविताओं से मिलते जुलते १० गीत चुनना भी बहुत मुश्किल काम नहीं था। तो सजीव जी के मना करने के बावजूद मैं यह क़दम उठा रहा हूँ और उनकी कविताओं पर आधारित प्रस्तुत कर रहा हूँ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'एक पल की उम्र लेकर'।

'एक पल की उम्र लेकर' शृंखला की पहली कड़ी के लिए इस पुस्तक में प्रकाशित जिस कविता को मैंने चुना है, वह है 'सरफ़िरा है वक़्त'। आइए पहले इस कविता को पढ़ें।

उदासी की नर्म दस्तक
होती है दिल पे हर शाम
और ग़म की गहरी परछाइंयाँ
तन्हाइयों का हाथ थामे
चली आती है
किसी की भीगी याद
आंखों में आती है
अश्कों में बिखर जाती है

दर्द की कलियाँ
समेट लेता हूँ मैं
अश्कों के मोती
सहेज के रख लेता हूँ मैं

जाने कब वो लौट आये

वो ठंडी चुभन
वो भीनी ख़ुशबू
अधखुली धुली पलकों का
नर्म नशीला जादू
तसव्वुर की सुर्ख़ किरणें
चन्द लम्हों को जैसे
डूबते हुए सूरज में समा जाती है
शाम के बुझते दीयों में
एक चमक सी उभर आती है

टूटे हुए लम्हें बटोर लेता हूँ मैं
बुझती हुई चमक बचा लेता हूँ मैं

जाने कब वो लौट आये

सरफिरा है वक़्त
कभी-कभी लौट आता है,

दोहराने अपने आप को।

शाम की उदासी, रात की तन्हाइयाँ, अंधेरों में बहती आँसू की नहरें जिन्हें अंधेरे में कोई दूसरा देख नहीं सकता, बस वो ख़ुद बहा लेता है, दिल का बोझ कम कर लेता है। किसी अपने की याद इस हद तक घायल कर देती है कि जीने की जैसे उम्मीद ही खोने लगती है। और फिर कभी अचानक मन में आशा की कोई किरण भी चमक उठती है कि उसकी याद की तरह शायद कभी वो ही लौट आये, क्योंकि वक़्त तो सरफिरा होता है न? कभी कभी दाम्पत्य जीवन में छोटी-छोटी ग़लतफ़हमिओं और अहम की वजह से पति-पत्नी में भी अनबन हो जाती है, रिश्ते में दरार आती है, और कई बार दोनों अलग भी हो जाते हैं। लेकिन कुछ ही समय में होता है पछतावा, अनुताप। और ऐसे में अपने साथी की यादों के सिवा कुछ नहीं होता करीब। ऐसी ही एक सिचुएशन बनी थी फ़िल्म 'गाइड' में। गीतकार शैलेन्द्र की कलम नें देव आनन्द साहब की मनस्थिति को कुछ इन शब्दों में क़ैद किया था - "दिन ढल जाये हाये रात न जाये, तू तो न आये तेरी याद सताये"। सजीव जी की उपर्योक्त कविता में भी मुझे इसी भाव की छाया मिलती है। तो आइए सुना जाये फ़िल्म 'गाइड' का यह सदाबहार गीत रफ़ी साहब की आवाज़ में। आज ३१ जुलाई, रफ़ी साहब की पुण्यतिथि पर 'हिंद-युग्म आवाज़' परिवार की तरफ़ से हम इस गायकों के शहंशाह को देते हैं ये सुरीली श्रद्धांजली।

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