Tuesday, August 16, 2011

एक पल की उम्र लेकर - शीर्षक कविता और एक गीत सुजॉय की पसंद का

सजीव सारथी के लिखे कविता-संग्रह 'एक पल की उम्र लेकर' पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इसी शीर्षक से लघु शृंखला की आज दसवीं और अंतिम कड़ी है। आज जिस कविता को हम प्रस्तुत करने जा रहे हैं, वह इस पुस्तक की शीर्षक कविता है 'एक पल की उम्र लेकर'। आइए इस कविता का रसस्वादन करें...

सुबह के पन्नों पर पायी
शाम की ही दास्ताँ
एक पल की उम्र लेकर
जब मिला था कारवाँ
वक्त तो फिर चल दिया
एक नई बहार को
बीता मौसम ढल गया
और सूखे पत्ते झर गए
चलते-चलते मंज़िलों के
रास्ते भी थक गए
तब कहीं वो मोड़ जो
छूटे थे किसी मुकाम पर
आज फिर से खुल गए,
नए क़दमों, नई मंज़िलों के लिए

मुझको था ये भरम
कि है मुझी से सब रोशनाँ
मैं अगर जो बुझ गया तो
फिर कहाँ ये बिजलियाँ

एक नासमझ इतरा रहा था
एक पल की उम्र लेकर।

ज़िंदगी की कितनी बड़ी सच्चाई कही गई है इस कविता में। जीवन क्षण-भंगुर है, फिर भी इस बात से बेख़बर रहते हैं हम, और जैसे एक माया-जाल से घिरे रहते हैं हमेशा। सांसारिक सुख-सम्पत्ति में उलझे रहते हैं, कभी लालच में फँस जाते हैं तो कभी झूठी शान दिखा बैठते हैं। कल किसी नें नहीं देखा पर कल का सपना हर कोई देखता है। यही दुनिया का नियम है। इसी सपने को साकार करने का प्रयास ज़िंदगी को आगे बढ़ाती है। लेकिन साथ ही साथ हमें यह भी याद रखनी चाहिए कि ज़िंदगी दो पल की है, इसलिए हमेशा ऐसा कुछ करना चाहिए जो मानव-कल्याण के लिए हो, जिससे समाज का भला हो। एक पीढ़ी जायेगी, नई पीढ़ी आयेगी, दुनिया चलता रहेगा, पर जो कुछ ख़ास कर जायेगा, वही अमर कहलाएगा। भविष्य तो किसी नें नहीं देखा, इसलिए हमें आज में ही जीना चाहिए और आज का भरपूर फ़ायदा उठाना चाहिए, क्या पता कल हो न हो, कल आये न आये! इसी विचार को गीत के रूप में प्रस्तुत किया था साहिर नें फ़िल्म 'वक़्त' के रवि द्वारा स्वरवद्ध और आशा भोसले द्वारा गाये हुए इस गीत में - "आगे भी जाने ना तू, पीछे भी जाने ना तू, जो भी है बस यही एक पल है"।

No comments:

Post a Comment